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पौराणिक महाकाव्य
और अनेक अंशों में उसका छायानुवाद हो । फिर भी दोनों ग्रन्थों के तुलनात्मक अध्ययन से विद्वद्वर्ग ने अनेकविध व्यतिक्रम, परिवर्तन, परिवर्धन, विभिन्न सैद्धान्तिक मान्यताओं प्रभृति तथ्यों की ओर ध्यान आकर्षित किया है। इसके अतिरिक्त रविषेण के कई विवेचन इतने पल्लवित और परिवर्धित हैं कि संस्कृत की यह कृति प्राकृत पउमचरियम् से डेढ़ गुने से भी अधिक हो गई है। फिर भी विषय की दृष्टि से इसमें कोई नवीन कथावस्तु का समावेश नहीं है।
इन दोनों की तुलना से जो निष्कर्ष निकलता है वह यह है कि रविषेण ने जब कि इस कृति को पूर्णतः दिग० परम्परा के अनुरूप ढालने का प्रयत्न किया है तो पउमचरियम् साम्प्रदायिकता से परे है या श्वेताम्बर-दिग० मान्यता से अलग किसी तीसरी परम्परा यापनीय की कृति है।
जैन साहित्य में रामकथा के दो रूप पाये जाते हैं। एक रूप तो विमलसूरि के पउमचरियं में, प्रस्तुत पद्मचरित में और हेमचन्द्रकृत त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित में तथा दूसरा गुणभद्र के उत्तरपुराण, पुष्पदन्तकृत महापुराण एवं कन्नड चामुण्डरायपुराण में | पहला रूप अधिकांशतः वाल्मीकि रामायण के ढंग का है जब कि दूसरा रूप विष्णुपुराण तथा बौद्ध दशरथजातक से मिलताजुलता है।
ग्रन्थकार-परिचय और रचना-काल-इस कृति के रचयिता का नाम रविषेण है। इन्होंने पद्मचरित के १२३वे पर्व के १६७ वे पद्य के उत्तरार्ध में अपनी गुरु परम्परा का उल्लेख इस प्रकार किया है-इन्द्रगुरु के शिष्य दिवाकर यति, दिवाकर यति के अर्हन्मुनि, अर्हन्मुनि के शिष्य लक्ष्मणसेन और उनके शिष्य रविषेण । पर रविषेण ने अपने किसी संघ या गणगच्छ का कोई उल्लेख नहीं किया है और न स्थानादि की चर्चा की है। परन्तु सेनान्त नाम से अनुमान होता है कि वे संभवतः सेन संघ के हों। उनके गृहस्थ जीवन और अन्य रचनाओं के विषय में भी कुछ नहीं मालूम । सौभाग्य से ग्रन्थकार ने इसकी रचना का संवत् दे दिया है । तदनुसार महावीर निर्वाण के १२०३ वर्ष ६ माह बीत जाने पर यह कृति लिखी गई थी। इस सूचना से इसकी रचना वि० सं० ७३४ या सन् ६७६ ई० में हुई है।
१. . ना. रा० प्रेमी, जैन साहित्य और इतिहास, पृ० ८७-१०८; पद्मपुराण,
प्रस्तावना, पृ०२१-३२. २. वही, पृ० ९३.९८. ३. पर्व १२३.१८.
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