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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
मिलती हैं। एक का ग्रंथाग्र ३१०० या ३४०० है । दूसरे की हस्त० प्रति में सं० १६०० दिया गया है । '
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रामलक्ष्मणचरित्र - इसे भी २०८ गाथाओं में भुवनतुंगसूरि ने सीताचरित्र के रचनाक्रम में लिखा है ।
पद्मचरित या पद्मपुराण – इस चरित' की कथावस्तु आठवें बलभद्र पद्म ( राम ), आठवें नारायण लक्ष्मण, प्रतिनारायण रावण तथा उनके परिवारों और सम्बद्ध वंशों का चरित वर्णन करना है । यह रचना संस्कृत में है । इसमें १२३ पर्व हैं जिनमें अनुष्टुम् मान से १८०२३ श्लोक हैं । संस्कृत जैन कथा साहित्य में यह सबसे प्राचीन ग्रन्थ है ।
इसमें अधिकतर अनुष्टुम् छन्दों का प्रयोग हुआ है । प्रत्येक पर्व के अन्त में छन्द परिवर्तन कर विविध वृत्तों का प्रयोग किया गया है । ४२वें पर्व की रचना नाना छन्दों में की गई है । ७८वें पर्व की विशेषता यह है कि उसमें वृत्तगन्धि गद्य का भी प्रयोग हुआ है जिसमें भुजंगप्रयात छन्द का आभास मिलता है ।
कहा है कि इसका विषय
ग्रन्थकार ने रचना के आधार की सूचना देते हुए श्री वर्धमान तीर्थकर से गौतम गणधर को और उनसे धारिणी के सुधर्माचार्य को प्राप्त हुआ । फिर प्रभव को और बाद में श्रेष्ठ वक्ता कीर्तिघर आचार्य को प्राप्त हुआ । तदनन्तर उनसे लिखित को आधार बना रविषेण ने यह ग्रन्थ प्रकट किया ।" अपभ्रंश पउमचरिउ के रचयिता स्वयम्भू ने भी अनुत्तरवाग्मी कीर्तिघर का उल्लेख किया है, पर इनकी कृति अबतक उपलब्ध नहीं है और न ही कीर्तिधर की आचार्य परम्परा ।
प्राकृत के 'पउमचरियम्' की कथावस्तु के विन्यास के समान ही इस कृति में वस्तु विन्यास दिखाई पड़ता है । विषय और वर्णन प्रायः ज्यों के त्यों तथा पर्व- प्रतिपर्व और प्रायः लगातार अनेक पद्य प्रतिपद्य मिल जाते हैं । इससे लगता है कि यह ग्रन्थ विमलसूरिकृत पउमचरियं को संमुख रख कर रचा गया हो,
१. वही, पृ० ४४२.
२. वही, पृ० ३३१.
३. भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी से ३ भागों में सानुवाद प्रकाशित, सन् प्रन्थमाला, बम्बई, ३ भाग, सन्
१९५८-५९; मूल – मा० दि० जै० १९८५ जि० २० को०, पृ० २३३. पर्व १२३, प० १६६.
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