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पौराणिक महाकाव्य
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कुवलयमाला की प्रस्तावना गाथाओं में विमलांक विमलसूरि को स्मरण किया गया है और उनकी 'अमृतमय सरस प्राकृत' की प्रशंसा की गई है ( कृति पउमचरियम् का उल्लेख नहीं है पर लक्ष्य वही है)। एक अन्य गाथा—यथा'
बुहयणसहस्सदयियं हरिवंसुप्पत्तिकारयं पढमं ।
वंदामि वंदियंपि हु हरिवरिसं चेय विमलपयं ।। (जिसका अर्थ डा० आ० ने० उपाध्ये ने यह किया है : 'प्रथम हरिवंशोत्पत्तिकारक हरिवर्ष कवि की बुधजनों में प्रिय और विमल अभिव्यक्ति (पदावली) के कारण बन्दना करता हूँ' ) में कुछ शब्दों का परिवर्तन कर कुछेक विद्वान् कल्पना करते हैं कि इससे 'हरिवंशचरियं के प्रथम रचयिता विमलसूरि' की ध्वनि निकलती है। पर उक्त गाथा से विमलसूरि का हरिवंश कर्तृत्व सिद्ध नहीं होता है । डा० उपाध्ये ने उक्त गाथा की द्वितीय पंक्ति में 'हरिवरिसं चेय विमल पयं' के स्थान में 'हरिवंसं चेय विमल पयं' के रूप में परिवर्तन करने में आपत्ति उठायी है कि उक्त गाथा में हरिवंश शब्द की पुनरावृत्ति हो जाती है। दूसरी बात यह कि उद्योतनसूरि ने प्रस्तावना गाथाओं में काल-क्रम से अजैन और जैन (श्वेता० तथा दिग०) कवियों का स्मरण किया है। उक्त क्रम में विमलांक विमल के बाद तिपुरिसयसिद्ध 'सुपुरुषचरित' के रचयिता गुप्तवंशी देवगुप्त, फिर प्रथम हरिवंशोत्पत्तिकारक हरिवर्ष, इसके बाद सुलोचनाकथाकार, यशोधरचरितकार, प्रभंजन, वरांगचरितकार जटिल, पद्मचरितकार रविषेण तथा समरादित्यकथाकार एवं अपने गुरु हरिभद्र का स्मरण किया है। यदि विमलसूरि की हरिवंस नाम से कोई रचना होती तो उसका उल्लेख विमल के क्रम में होना चाहिए था। पर ऐसा नहीं हुआ है। वहाँ तो एक कवि और उसकी रचना का अन्तराल देकर हरिवंश का उल्लेख हुआ है। यह 'हरिवंसुप्पत्ति' ग्रन्थ प्राकृत में या संस्कृत में भी हो सकता है क्योंकि प्रस्तावना गाथाओं में प्राकृत और संस्कृत दोनों भाषाओं के कवियों को स्मरण किया गया है इसलिए उक्त गाथा से विमलसूरि कृत 'हरिवंसचरियं' की ध्वनि निकालना संभव नहीं दिखता। ___सीताचरित्र-इसमें ४६५ प्राकृत गाथाओं में भुवनतुंगसूरि ने सीता का चरित्र लिखा है।' सीताचरित्र पर प्राकृत में अज्ञात कर्तृक दो और रचनायें
१. कुवलयमाला (सि. जै० प्र० ४५), पृ. ३. २. वही, भाग २, प्रस्तावना, पृ. ७६ और नोट्स पृ. १२६. ३. जिनरत्नकोश, पृ० ४४२.
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