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जैन साहित्य का वृहद् इतिहास _जैनधर्म के सिद्धान्त निरूपण की दृष्टि से पउमचरियं ऐसी रचना है जो साम्प्रदायिकता से परे है। ग्रन्थ में वर्णित अनेक तथ्यों के विश्लेषण से ज्ञात होता है कि इसमें श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीय सभी सम्प्रदायों का समावेश हो गया है। संभवतः विमलसूरि उस युग के थे जब जैनों में साम्प्रदायिकता का विभाग गहरा न हो सका था। उनपर साम्प्रदायिकता का कोई प्रभाव नहीं है। उन्होंने परम्परा से जो सुना, पढ़ा और देखा उसीका वर्णन किया है भले वह श्वेताम्बर या दिगम्बर दोनों परम्पराओं के प्रतिकूल बैठे।
रचयिता और रचना-काल-ग्रन्थ के अन्त में दी गई प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि इसके कर्ता नाइलकुल वंश के विमलसूरि थे जो कि राहु के प्रशिष्य
और विनय के शिष्य थे। इसके अतिरिक्त कवि के जीवन पर विशेष प्रकाश नहीं मिलता है।
प्रशस्ति में एक गाथा से पता चलता है कि यह कृति ५३० वीर निर्वाण संवत् में अर्थात् ई० सन् ४ में लिखी गई थी। पर इस पर पाश्चात्य विद्वान् ह. याकोबी और जैन विद्वान् मुनि जिनविजय, मुनि कल्याणविजय और पं. परमानन्द शास्त्री तथा जैनेतर विद्वान् के० एच० ध्रुव ने शंका प्रकट की है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि जिस नाइल कुल के ये आचार्य है वह नाइली शाखा के रूप में वी०नि० सं० ५८० या ६०० के लगभग वज्र (वी. नि. ५७५) के शिष्य वज्रसेन ने स्थापित की थी और उस शाखा में उत्पन्न होने से ये अवश्य कई पीढी बाद हुए हैं। इसलिए वर्ष ५३०, वीर नि० न होकर बाद का कोई संवत् होना चाहिए । याकोबी ने इसे तृतीय शताब्दी की रचना माना हैं और डा० के० आर० चन्द्र ने इसे वि० सं० ५३० की कृति माना है ।
पउमचरियम् के अतिरिक्त विमलसूरि की कुछ अन्य रचनायें बतायी जाती हैं। पर उनका कर्तृत्व विवादास्पद है। 'प्रश्नोत्तरमालिका' एक ऐसी रचना है जिसे बौद्ध, ब्राह्मण और जैन अपने-अपने मत की बताते हैं। हरिदास शास्त्री
और कुछ अन्य विद्वानोंकी मान्यता है कि यह विमलसूरि द्वारा रचित है। कुछ विद्वान् इसे राष्ट्रकूट नरेश अमोघवर्ष ( ९वीं शता० ) की रचना बताते हैं । १. पउमचरियम् , प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, वाराणसी, १९६२, देखें-डा. वी.
एम. कुलकर्णी द्वारा लिखित प्रस्तावना, पृ० ८-१५. २. ए क्रिटिकल स्टडी भाफ पउमचरियं, पृ० १७. ३. पउमचरियं की अंग्रेजी प्रस्तावना, पृ० १७, प्राकृत ग्रन्थ परिषद्,
वाराणसी, १९६२.
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