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ललित वाङ्मय
४९९ नाम पद्मेन्दु मुनिराज था। इस काव्य के रचयिता इन्हीं पद्मेन्दु मुनिराज के शिष्य थे। उक्त प्रशस्ति से कवि के सम्बन्ध में अन्य बातें नहीं ज्ञात होती हैं। प्रशस्ति में इस काव्य की रचना का समय सं० १२७८ लिखा है (दिक्करिकुलगिरिदिनकर (१२७८) परिमितविक्रमनरेश्वरसमायाम् )।
नरनारायणानन्द :
यह काव्य' महाभारत के उस कथा-प्रसंग, जिसमें श्रीकृष्ण और अर्जुन की मैत्री, रैवतक पर उनका विहार तथा अन्त में अर्जुन द्वारा सुभद्रा का हरण वर्णित है, को लेकर रचा गया है। इस लघुकथानक को शास्त्रीय महाकाव्य के अनुरूप व्यापकरूप प्रदान किया गया है ।
इस काव्य में १६ सर्ग हैं और रचना-परिमाण ७४० श्लोक है। अन्तिम सर्ग प्रशस्तिसर्ग है जिसमें कवि ने अपना, अपनी वंशपरम्परा तथा अपने गुरु का परिचय दिया है। इस सर्ग का मूल कथानक से कोई सम्बन्ध नहीं है । केवल १५ सर्ग ही मूल कथानक से सम्बद्ध हैं। सर्गों का नाम वर्ण्य विषय के नाम से दिया गया है। प्रथम सर्ग 'पुरनृपवर्णन' है। इसमें द्वारवती नगरी तथा श्रीकृष्ण का वर्णन है । दूसरे सर्ग 'समावर्णन' में अर्जुन के प्रभास तीर्थ में आने की सूचना मिलती है। तीसरे सर्ग 'नरनारायण संगम' में श्रीकृष्ण की अर्जुन से भेट तथा पूछने पर अर्जुन द्वारा रैवतक पर्वत का वर्णन है। चौथे में ऋतुवर्णन, पाँचवे में चन्द्रोदय, छठे में सुरापान-सुरत-वर्णन और सातवें में सूर्योदय-वर्णन परम्परागत शैली के अनुसार दिये गये हैं। आठवें सर्ग में बलराम का अपने परिवार और सेना सहित रैवतक पर्वत पर आने का वर्णन है, इसे 'सेनानिवेशवर्णन' सर्ग कहा गया है। नवम सर्ग में पुष्पावचयप्रपंच अर्थात् श्रीकृष्ण-अर्जुन का वनक्रीड़ा के लिए वन में जाना तथा स्त्रियों के झूलों और पुष्पचयनों का वर्णन है। दसवें सर्ग 'सुभद्रादर्शन' में जलक्रीड़ा के समय सुभद्रा और अर्जुन का एक-दूसरे के प्रति मुग्ध होना प्रदर्शित है। ग्यारहवे सर्ग में अर्जुन और सुभद्रा का एक-दूसरे के लिए व्याकुल होना तथा दूती के द्वारा दोनों की रैवतक पर्वत पर मिलने की
१. जिनरस्नकोश,पृ. २०१; गायकवाड ओरियण्टल सिरीज, बड़ौदा, १९६६:
महाकाव्यत्व के लिए देखें-डा. श्यामशंकर दीक्षित, तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी के जैन संस्कृत महाकाव्य, पृ० ९७-१२०, डा० नेमिचन्द्र शास्त्री, संस्कृत काव्य के विकास में जैन कवियों का योगदान, पृ० ३२९-३५०.
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