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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
महाकवि ने इस काव्य को विविध अलंकारों' और छंदों से भी सजाया है । वर्धमानचरित पर पूर्ववर्ती कवियों का प्रभाव परिलक्षित होता है । इसकी शैली प्रायः भारवि के किरातार्जुनीयम् से मिलती-जुलती है। रघुवंश, शिशुपालवध, चन्द्रप्रभचरित, नेमिनिर्वाण आदि काव्यों का यत्किंचित् सादृश्य भी दिखाई देता है ।
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रचयिता एवं रचनाकाल - कवि के एक अन्य काव्यग्रन्थ शान्तिनाथचरित की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि इसके रचयिता असग कवि थे । उनके पिता का नाम पटुमति और माता का नाम वैरेति था । कवि के गुरु का नाम नागनन्दि था । कवि ने श्रीनाथ के राज्यकाल में चोलराज्य की विभिन्न नगरियों में आठ ग्रंथों की रचना की है। वर्धमानचरित की प्रशस्ति के अनुसार इस काव्य का रचनाकाल शक संवत् ९१० ( ई० सन् ९८८ ) है । कवि के गुरु नागनन्दि संभवतः वे ही नागनन्दि हों जिनका उल्लेख श्रवणबेलगोल के १०८वें शिलालेख में नन्दिसंघ के आचार्य के रूप में है । पर नन्दिसंघ की पट्टावली से उनके सम्बन्ध में कुछ भी ज्ञात नहीं होता ।
धर्मशर्माभ्युदय :
इस महाकाव्य में पन्द्रहवें तीर्थकर धर्मनाथ का जीवनचरित वर्णित है । इसमें २१ सर्ग हैं जिनमें कुल मिलाकर १७६५ पद्य हैं । अन्त में ग्रन्थकर्ता की प्रशस्ति १० पद्यों में दी गई है। इस काव्य की कथावस्तु का आधार आचार्य गुणभद्रकृत उत्तरपुराण का ६१वाँ पर्व है जिसमें धर्मनाथ का चरित केवल ५२ पद्यों में वर्णित है जिनमें धर्मनाथ के केवल दो पूर्व भवों और वर्तमान भव का वर्णन है । "
१. इस महाकाव्य के अलंकारों के परिशीलन के लिए देखें --- संस्कृत काव्य के विकास में जैन कवियों का योगदान, पृ० १५३-१६१.
२. छन्दों के लिए भी वही, पृ० १६१.
३. काव्यमाला ८, निर्णयसागर प्रेस, बम्बई, १९३३; जिनरत्नकोश, पृ०. १९३; हिन्दी अनुवाद - पं० पन्नालाल साहित्याचार्यकृत, भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी.
उत्तरपुराण, पर्व ६१.५४.
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