________________
ललित वाङ्मय
४८५ सेनापति चामुण्डराय की प्रेरणा से की थी। इस चामुण्डराम ने गोम्मटस्वामी की मूर्ति की प्रतिष्ठा चैत्र शुक्ल पंचमी रविवार अर्थात् २२ मार्च सन् १०२८ में श्रवणबेलगोल नामक स्थान में की थी अतः वीरनन्दि का समय ११वीं शताब्दी का प्रारम्भ माना जा सकता है। वर्धमानचरित: ____ इसमें भग० महावीर का वर्तमान भव और पूर्वजन्मों में मरीचि, विश्वनन्दी, अश्वग्रीव, त्रिपृष्ठ, सिंह, कपिष्ठ, हरिषेण, सूर्यप्रभ आदि की कथाएँ वर्णित हैं। ___ इसकी कथावस्तु यद्यपि उत्तरपुराण के ७४वें पर्व से ली गई है पर कवि ने कथावस्तु को महाकाव्योचित बनाने के लिए काट-छाँट भी की है। कवि असग ने पुरुरवा और मरीचि के आख्यान को छोड़ दिया है और श्वेतातपत्रा नगरी के राजा नन्दिवर्धन के आंगन में पुत्र जन्मोत्सव से कथानक प्रारम्भ किया है। यह आरम्भस्थल बहुत ही रमणीय बन पड़ा है। पूर्व भवावलि का प्रारम्भिक अंश घटित रूप में न दिखलाकर मुनिराज के मुख से कहलाया गया है। इस प्रकार उत्तरपुराण की कथावस्तु अक्षुण्ण रह गई है। कवि ने इस बात का पूर्ण प्रयत्न किया है कि पौराणिक कथानक महाकाव्य का रूप धारण कर सके। इस महाकाव्य में जीवन के प्रधान तत्त्वों की व्याख्या प्रस्तुत की गई है यथा-पिता-पुत्र का स्नेह नन्दिवर्धन और नन्दन के जीवन में, भाई का स्नेह विश्वभूति और विशाखभूति के जीवन में, पति-पत्नी का स्नेह त्रिपृष्ठ और स्वयम्प्रभा के जीवन में, विविध भोग-विलास हरिषेण के जीवन में और शौर्य एवं अद्भुत कार्यों का वर्णन त्रिपृष्ठ के जीवन में।
इस काव्य की महाकाव्योचित गरिमामयी उदात्त शैली है और गम्भीर रसव्यंजना भी इसमें विद्यमान है। साथ ही संध्या, प्रभात, मध्याह्न, रात्रि, वन, सूर्य, नदी, पर्वत आदि का सांगोपांग वर्णन है। १. जिनरत्नकोश, पृ० ३४२, सम्पादन और मराठी अनुवाद-जिनदास पार्श्व
नाथ फडकुले, प्रकाशक-रावजी सखाराम दोशी, सोलापुर, १९३१, हिन्दी अनुवाद-पं. खूबचन्द्र शास्त्री, प्रकाशक-मूलचन्द किसनदास कापडिया, सूरत, १९१८, इसका संक्षिप्त उल्लेख पहले पृ० १२६ में कर
माये हैं। यहाँ विशेष परिचय प्रस्तुत है। २. संस्कृत काग्य के विकास में जैन कवियों का योगदान, पृ. १५०-१५२.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org