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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास बलात्कारगण-दिल्ली-जयपुर-शाखा की एक पट्टावली' ४२ पद्यों की मिलती है। यह पट्टावली ईडरशाखा की उक्त ६३ पद्यों की गुर्वावलि में कुछ हेर-फेर कर बनाई गई है। इसके २६, २७ और २८३ पद्य उक्त गुर्वावलि के क्रमशः २७, २९ और ३०वें पद्य हैं। पद्य २९वें में उक्त शाखा के शुभचन्द्र (सं० १४५०-१५०७) भट्टारक का वर्णन है। इसके बाद उक्त शाखा के जिनचन्द्र, प्रभाचन्द्र, चन्द्रकीर्ति, देवेन्द्रकीर्ति एवं नरेन्द्रकीर्ति का वर्णन कर यह पट्टावली समाप्त होती है। इनमें भट्टा० जिनचन्द्र अति प्रसिद्ध हैं। उनके द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तियाँ सबसे अधिक हैं। प्रतिष्ठाकर्ता सेठ जीवराज पापड़ीवाल के प्रयत्नों से ये हजारों मूर्तियाँ भारत के कोने-कोने में पहुँची हैं। इनकी प्रतिष्ठा सं० १५४८ अक्षयतृतीया को हुई थी।
बलात्कारगण-भानुपुर-शाखा तथा सुरत-शाखा की पट्टावलियाँ भी संस्कृत भाषा में रचित मिली हैं। पहली संस्कृत के ५५.५६ पद्यों में है। इस शाखा का प्रारम्भ भट्टारक सकलकीर्ति के प्रशिष्य भट्टा० ज्ञानकीर्ति से होता है। प्रस्तुत पट्टावली के ३४ पद्यों तक प्राचीन परम्परा का वर्णन कर इस शाखा के पट्टधरों का वर्णन पद्य ३५ से किया है। इसमें ज्ञानकीर्ति (सं० १५३४ ) से लेकर भट्टारक रत्नचन्द्र (सं० १७७४-८६ ) तक की परम्परा दी गई है।
सूरतशाखा की पट्टावली संस्कृत गद्य में है और इसमें भी पूर्वाचार्यों से सम्बन्ध जोड़ते हुए भट्टारक पद्मनन्दि के शिष्य देवेन्द्रकीर्ति (सं० १४९३ ) से चलनेवाली उक्त शाखा का विस्तार से वर्णन है जिसे उक्त शाखा के भट्टा विद्यानन्दि (सं० १८०५-१८२२) के शिष्य देवेन्द्रकीर्ति (सं० १८४२) तक लाकर समाप्त किया गया है। इसे नन्दिसंघ-विरुदावली भी कहा गया है। इसकी रचना देवेन्द्रकीर्ति (द्वि०) के शिष्य सुमतिकीर्ति ने की है।
१. जैन सिद्धान्त भास्कर, भाग ., किरण १, पृ. ८१; इस पहावली के
प्रमाण में कतिपय शिलालेख दिये गये हैं। विशेष विवेचन के लिए देखें
भट्टारक सम्प्रदाय, पृ० ९७-११३. २. जैन सिद्धान्त भास्कर, भाग ९, पृ० १०८-११९, भट्टारक सम्प्रदाय, पृ.
१५९-१६८. ३. जैन सिद्धान्त भास्कर, भाग ९, पृ० ४६-५३; भट्टारक सम्प्रदाय, पृ०
१६९-२०१.
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