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ऐतिहासिक साहित्य
४५७ प्रकाश में आई हैं । पहली संस्कृत गद्य में है।' इसमें भट्टारक पद्मनन्दि, सकलकीर्ति, भुवनकीर्ति, ज्ञानभूषण, विजयकीर्ति, शुभचन्द्र ( पाण्डव पुराणादि अनेकों अन्यों के रचयिता ), सुमतिकीर्ति, गुणकीर्ति एवं वादिभूषण तक की परम्परा दी गई है तथा उन भट्टारकों की महिमा, ग्रन्थकर्तृत्व आदि पर प्रकाश डाला गया है। वादिभूषण का समय सं० १६५२ के आस-पास है। उक्त पट्टावली के अनेक भट्टारक अच्छे ग्रन्थकर्ता थे।
ईडर शाखा की दूसरी पट्टावली (गुर्वावलि) संस्कृत छन्दों में है जिनकी संख्या ६३ है। इसमें भट्टारक सकलकीर्ति से लेकर चन्द्रकीर्ति (सं. १८३२) तक की परम्परा दी गई है। यह गुर्वावलि बड़े महत्व की है। इसमें गुप्तिगुप्त से लेकर अभयकीर्ति तक लगभग १०० आचार्यों का नाम दिया है जो वनवासी थे
और जिन्हें बलात्कारगण की प्राचीन परम्परा से जोड़ा गया है (१-२१ पद्य तक)। तत्पश्चात् उत्तर भारत के भट्टारकपीठों की परम्परा वसन्तकीर्ति से प्रारम्भ की गई है (पद्य २१)। वसन्तकीर्ति के विषय में कहा जाता है कि ये ही दिग० मुनियों के वस्त्रधारण के प्रवर्तक थे । इनकी जाति बघेरवाल और निवासस्थान अजमेर था। ये मं० १२६४ की माघ शु० ५ को पदारूढ़ हुए थे तथा १ वर्ष ४ मास वट्ट पर थे । इनका उल्लेख बिजौलिया के शिलालेख में भी हुआ है।
वसन्तकीर्ति के बाद क्रमशः विशालकीर्ति, शुभकीर्ति, धर्मचन्द्र, रत्नकीर्ति, प्रभाचन्द्र (७४ वर्ष तक पट्टाधीश ), पद्मनन्दि हुए।
भट्टा० पद्मनन्दि के तीन प्रमुख शिष्यों द्वारा तीन भट्टारकपरम्पराएँ प्रारम्भ हुई जिनका आगे अनेक प्रशाखाओं में विस्तार हुआ। इनमें से ईडरशाखा के सकलकीर्ति और उनकी भट्टपरम्परा का वर्णन प्रस्तुत गुर्वावलि के पद्य ३२ से ६२ तक में विस्तार से दिया गया है । शुभचन्द्र से चलनेवाली दिल्ली-जयपुर-शाखा का वर्णन दूसरी गुर्वावलि में दिया गया है तथा देवेन्द्रकीर्ति से चलनेवाली परम्परा सूरतशाखा की अन्य पट्टावली में द्रष्टव्य है।
१. जैन सिद्धान्त भास्कर, वर्ष , किरण ४, पृ० ४६ प्रभृति विशेष विवेचन के
लिए देखें-भट्टारक सम्प्रदाय, पृ० १५३.१५.१. २. जैन सिद्धान्त भास्कर, वर्ष १, किरण १, पृ० ५। प्रभृति; भहारक सम्प्रदाय,
पृ० १५३-१५८. ३. जैन साहित्य और इतिहास, पृ० १९०.
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