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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
से मालूम होता है । पर जिनप्रभसूरि का नाम मात्र भी उपरिनिर्दिष्ट खरतरगच्छगुर्वावलि में नहीं दिया गया। इससे ज्ञात होता है कि उक्त गुर्वावलि के संकलनकर्ता का मुख्य उद्देश्य अपनी गुरुपरम्परा मात्र का महत्त्व अंकित करना था और अन्य गच्छीय या अन्य शाखीय आचार्यों के बारे में उपेक्षा भाव रखना।
इस प्रबन्धावलि का प्रणयन जिनप्रभसूरि की शिष्य-परम्परा के किसी शिष्य ने किया है।
खरतरगच्छ-पट्टावली-संग्रह :
यह चार पट्टावलियों का संग्रह है जिसे मुनि जिनविजय जी ने संग्रह एवं सम्पादित कर प्रकाशित कराया था। इनमें प्रथम एक प्रशस्ति के रूप में है। इसमें कुल संस्कृत पद्य ११० हैं और यह आचार्य जिनहंससूरि के समय में रची गई है पर कर्ता का नाम नहीं दिया गया। जिनहंस का समय वि० १५८२ है
और उसी वर्ष इसका निर्माण हुआ है। इसमें खरतरगच्छ के आचार्यों का समय व्यवस्थित दिया गया है।
दूसरी पट्टावली संस्कृत गद्य में है। इसकी रचना सं० १६७४ में की गई थी। इसका तिथिक्रम अव्यवस्थित है।
तीसरी पट्टावली भी अव्यवस्थित है। इसकी पट्टपरम्परा तथा तिथिक्रम सब अव्यवस्थित ही है।
चौथी पट्टावली सं० १८३० में अमृतधर्म के शिष्य उपाध्याय क्षमाकल्याण ने रची थी । यह प्रथम तीन पट्टावलियों से बहुत-कुछ मिलती-जुलती है ।
खरतरगच्छ की अनेक हस्तलिखित पट्टावलियों का परिचय पं० कल्याणविजयगणि सम्पादित पट्टावलिपरागसंग्रह में तथा मणिधारी जिनचन्द्रसूरि अष्टम शताब्दी स्मृतिग्रन्थ में २३ पट्टावलियों और गुर्वावलियों की सूची दी गई है।
१. जिनरत्नकोश, पृ० १०१ पूरणचन्द्रजी नाहर द्वारा कलकत्ता से सन् १९३२
में प्रकाशित. २. जिनरत्नकोश, पृ० १.१. ३. क० वि० शास्त्रसंग्रह समिति, जालौर. १. द्वितीय खण्ड, पृ० ३१-३२.
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