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________________ ४४२ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास से पूर्व के कुछ ही हस्तलिखित ग्रन्थ मिले हैं जिनमें प्रथम प्रकार की प्रशस्तियाँ ( ग्रन्थकारप्रशस्ति ) मिलती हैं। भारतीय इतिहास के विषय में छुटपुट सूचनाओं को इकट्ठा करने में जैन ग्रन्थकारों की प्रशस्तियाँ महत्त्वपूर्ण स्रोत के रूप में समझो गई हैं। यदि इनका उचित रूप से एकीकरण किया जाय और प्रतिमालेखों के साथ जो कि बड़ी संख्या में उत्कीर्ण पाये गये हैं और प्रकाशित भी हुए हैं तथा अन्य अभिलेखों के साथ अध्ययन किया जाय तो न केवल नूतन तथ्य ही प्रकाश में आएंगे बल्कि सुज्ञात तथ्यों के बीच परस्पर सम्बन्ध दिखाये जा सकेंगे और हमारे तिथिक्रम के अध्ययन में बहुत अच्छे फल प्राप्त होंगे। समकालीन रिकार्ड होने से ये प्रशस्तियाँ देश के राजनीतिक और सामाजिक इतिहास के निर्माण के लिए भी महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। इनसे तत्कालीन धार्मिक और साहित्यिक गतिविधि का भी परिचय मिलता है। पुस्तकप्रशस्ति हमें दानदाता, उसके परिवार, वंशावलि, जाति और गोत्र आदि का परिचय मिलता है । इसके अतिरिक्त इनसे भूगोल की भी सामग्री मिलती है। मध्यकालीन जैनाचार्यों के पारस्परिक विद्या-सम्बन्ध, गच्छ के साथ उनके सम्बन्ध, कार्यक्षेत्र का विस्तार, ज्ञानप्रसार के लिए प्रयत्न आदि की पर्याप्त सामग्री भी मिल जाती है। भावकों की जातियों के निकास और विकास पर भी रोचक प्रकाश इनसे मिलता है । ग्रन्थकारप्रशस्ति के महत्त्व को हम पहले ही ग्रन्थों के परिचय के साथ सूचित करते गये हैं। हमने कुवलयमाला, हरिवंशपुराण, उत्तरपुराण, हरिषेणकथाकोश आदि की प्रशस्तियों के महत्त्वों को यथास्थान अंकित किया है। उनका फिर से यहाँ विस्तारपूर्वक वर्णन करने का अवकाश नहीं। फिर भी यहाँ दो-चार अन्य प्रशस्तियों का विवरण उपस्थित करते हैं। मुनिसुव्वयसामिचरिय की प्रशस्ति : ____ सं० ११९३ में रचित उक्त काव्य' में हर्षपुरीयगच्छ के श्रीचन्द्रसूरि ने लगभग १०० पद्यों की एक बड़ी प्रशस्ति दी है। इस प्रशस्ति में ग्रन्थकार ने अपने दादा गुरु और गुरु का गुणवर्णन बहुत विस्तार से किया है। इसमें शाकंभरीनरेश पृथ्वीराज, ग्वालियरनरेश भुवनपाल, सौराष्ट्र के राजा खेंगार और अणहिलपुर के राजा सिद्धराज जयसिंह आदि का उल्लेख है। उस समय पाटन का एक संघ गिरनारतीर्थ की यात्रा के लिए गया और वनथली में उसने पड़ाव डाला। उस संघ में आये लोगों के आभूषण आदि की समृद्धि को देखकर १. इस ग्रन्थ का परिचय पृ० ८७ में दिया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002099
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Literature, Kavya, & Story
File Size11 MB
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