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ऐतिहासिक साहित्य सोरठनरेश का मन ललचा गया। उसके लोभी सहचरों ने कहा कि पाटन की बड़ी लक्ष्मी घर बैठे तुम्हारे यहाँ आ गई है और बहुत लोगों ने संघ को लूटकर अपने खजाने भर लिये। राजा को एक तरफ लक्ष्मी का लोभ और दूसरी तरफ जगत् में फैलनेवाली अपकीर्ति के भय से वह सकपकाया। उसने संघ को बहुत दिन तक वहाँ से जाने ही न दिया। तब ग्रन्थकार के प्रभावक गुरु आचार्य हेमचन्द्र ( दूसरे हेमचन्द्र ) मौका देखकर खेंगार की सभा में गये और उसे धर्मोपदेश देकर उसके दुष्ट विचार को परिवर्तित किया और संघ को आपत्ति से छुड़ा दिया आदि । इस तरह की कितनी ही ऐतिहासिक बातें ग्रन्थकार ने इस प्रशस्ति में दी हैं। अणहिलवाड, भरुच, आशापल्ली, हर्षपुर, रणथंभोर, साचोर, वणथली, धोलका और धंधुका आदि स्थानों तथा मंत्री शान्तु, अणहिलपुर का सेठ सीया, भरुच का सेठ धवल और आशापल्ली का श्रीमाली सेठ नागिल आदि कितने ही प्रख्यात नागरिकों का उल्लेख इस प्रशस्ति में है।
सुपासनाहचरिय की प्रशस्ति :
उपर्युक्त श्रीचन्द्रसूरि के गुरुभाई लक्ष्मणगणि ने सं० ११९९ की माघ सुदी दशमी गुरुवार के दिन मांडल में रहकर सुपासनाहचरिय नामक बृहत् ग्रन्थ लिखा । उसके अन्त में १७ गाथाओं की एक अच्छी प्रशस्ति है। उस प्रशस्ति में महत्त्व की कई बातें हैं पर सबसे महत्त्व की बात यह है कि जिस समय यह ग्रन्थ पूर्ण हुआ उस समय अणहिलपुर में राजा कुमारपाल राज्य करता था। कुमारपाल के राज्य का यह समकालीन प्रथम उल्लेख है। प्रबन्धचिन्तामणि आदि में इस राजा की राजगद्दी पर बैठने का समय सं० ११९९ दिया गया है। यह उल्लेख तत्कालीन और असंदिग्ध कथन से सत्य बैठता है। डा. देवदत्त भांडारकर ने एक समय गोधरा और मारवाड़ के एक लेख का भ्रान्त अर्थ कर कुमारपाल की सं० १२०० के बाद राजगद्दी पर बैठने की सम्भावना की थी और कहा था कि प्रबन्धचिन्तामणि में दिया गया वर्ष ठीक नहीं है पर उक्त समकालीन प्रशस्ति के उल्लेख से भांडारकर का मत निरस्त हो जाता है। नेमिनाहचरिउ की प्रशस्ति :
सं० १२१६ में कुमारपाल के राज्यकाल में हरिभद्रसूरि नामक एक आचार्य ने नेमिनाहचरिउ नामक ग्रन्थ में २३ पद्यों की एक प्रशस्ति अपभ्रंश में लिखी है। मन्त्री पृथ्वीपाल की प्रेरणा से आचार्य ने यह ग्रन्थ लिखा था। इसलिए ग्रन्थकार ने अपनी गुरुपरम्परा के परिचय के साथ इस मन्त्री के पूर्वजों का भी
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