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ऐतिहासिक साहित्य इनकी अन्य रचनाओं में अन्तर्कथासंग्रह (कौतुककथा ), स्याद्वादकलिका, स्याद्वाददीपिका, रत्नावतारिकापंजिका, न्यायकदलीपंजिका और षड्दर्शनसमुच्चय मिलते हैं। पुरातनप्रबन्धसंग्रह :
मुनि जिनविजयजी को पाटन के भण्डार में एक प्रबन्धसंग्रह की प्रति मिली थी जिसमें अनेक प्रबन्धों का संग्रह था। दुर्भाग्य से यह प्रति खण्डित थी इससे ग्रन्थकर्ता का नाम ज्ञात न हो सका। इसके अन्तिम पृष्ठ ७६ में प्रबन्ध का क्रमांक ६६ दिया गया है। लगता है इसमें और भी प्रबन्ध थे। उपदेशतरंगिणी में चतुर्विंशतिप्रबन्ध (प्रबन्धकोश ) के अतिरिक्त द्विसप्ततिप्रबन्ध का भी उल्लेख मिलता है। संभवतः यह वही ग्रन्थ हो। इसमें प्रबन्धचिन्तामणि और प्रबन्धकोश के कई प्रबन्धों की पुनरावृत्ति हुई है। कई नये प्रबन्ध भी हैं, यथा भोजगांगेयप्रबन्ध, धाराध्वंसप्रबन्ध, मदनवर्म-जयसिंहदेवप्रीतिप्रबन्ध, पृथ्वीराजप्रबन्ध, नाहडरायप्रबन्ध, नाडोल लाखनप्रबन्ध । यह प्रति १५वीं शता० की लिखी प्रतीत होती है। मुनि जिनविजयजी ने इस प्रति की सामग्री और पूर्वोक्त जिनभद्रकृत प्रबन्धावलि की सामग्री को लेकर 'पुरातनप्रबन्धसंग्रह" ग्रन्थ प्रकाशित किया है। विविध प्रकार के जैन ग्रन्थों में ऐतिहासिक सामग्री:
हमें ऐसे अनेक ग्रन्थ मिले हैं जिनमें यद्यपि नियमित ग्रन्थ-प्रशस्ति तो नहीं है पर वे अपने से पूर्ववर्ती आचार्यों, उनकी कृतियों विशेषकर अपने विषय, ग्रन्थकार और ग्रन्थ की सूचना के साथ आकस्मिक रूप से अपने समय की महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना का उल्लेख करते हैं। पश्चात्कालीन आचार्यों और कृतियों द्वारा पूर्ववर्ती ग्रन्थकार और ग्रन्थों का उल्लेख, मान्य ग्रन्थकारों के पूर्व दृष्टिकोणों का खण्डन, भाषा और विषयों का स्वरूप, पूर्ववर्ती कृतियों से उद्धरण आदि अनेक बातें हैं जिनसे ग्रन्थकर्ताओं की सापेक्षिक सामयिकता निश्चित की जा सकती है। यह विशेषरूप से सत्य है हमारे तार्किक दार्शनिक साहित्य के विषय में, जिससे हमें न केवल जैन ग्रन्थकारों के कालक्रम का निश्चय करने में, बल्कि महत्त्वपूर्ण ब्राह्मण और बौद्ध तार्किकों के विषय में भी अद्भुत रूप से सहायता मिलती है। जैन विद्वानों में यह एक रीति थी कि वे पूर्ववर्ती आचार्यों की कारिकाओं को अपने मत के समर्थन में या दूसरों के मत के खण्डन में उद्धृत
१. सिंघी जैन ग्रन्थमाला, क्रमांक २.
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