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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
है कि प्रबन्धकोश के रचयिता ने जिनभद्र की प्रबन्धावलि से ही ये दोनों प्रबंध अपने ग्रन्थ में लिये हैं। वैसे देखा जाय तो उत्तरकालीन प्रबन्धग्रन्थ अपने कुछ विषयों के लिए इस प्रबन्धावलि के ऋणी हैं।' इसे मुनि जिनविजयजी ने अपने ग्रन्थ ' पुरातनप्रबन्ध संग्रह' के अन्तर्गत प्रकाशित किया है। इसमें उपलब्ध पृथ्वीराजप्रबन्ध में चन्दवरदाई के तथाकथित पृथ्वीराजरासो काव्य के बीज वर्तमान हैं तथा आधुनिक लोकभाषाओं और साहित्य के भी बीज मिलते हैं ।
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इसकी भाषा' वह संस्कृत है जो एक लोकभाषा का रूप लिए हुए है । यह न केवल प्राकृत के प्रयोगों से ही ओत-प्रोत है अपितु तात्कालिक क्षेत्रीय भाषा के शब्दों से भी । जिसे प्राकृत और प्राचीन तथा अर्वाचीन गुजराती भाषा का ज्ञान नहीं वह इसके प्रबन्धों, कितने ही शब्दों, वाक्यों एवं भावों को नहीं जान सकता । गुजरात के जैन लेखकों ने इस भाषा को अपने कथा एवं प्रबन्ध ग्रन्थों में खूब व्यवहृत किया है । गुजरात और मध्य भारत के कुछ भागों को छोड़ ऐसी भाषा का प्रयोग अन्यत्र नहीं हुआ है । यह उक्त प्रदेशों के राजकार्यों और राजदरबारों की भाषा भी रही है । यह भाषा गुजरात में मुसलमानों के राजस्थापन के पश्चात् भी कानूनी लेखपत्रों की भाषा रही है जो न्यायालयों में रजिस्ट्री करने के लिए स्वीकृत किये जाते थे । यह उन पण्डितों की भाषा नहीं है जो पाणिनि या हेमचन्द्र प्रणीत व्याकरणों के नियमों से चिपके रहते थे । इस भाषा की तुलना ईसा की प्रथम शताब्दियों में लिखे गये चौद्ध ग्रन्थों महावस्तु और ललितविस्तर आदि की भाषा से की जा सकती है जिसे 'गाथा संस्कृत' कहते हैं । गुजरात के जैन लेखकों की इस भाषा का पृथक् नाम तो नहीं दिया गया पर इसे हम वर्ना - क्यूलर संस्कृत या सर्वसाधारण में समझी जानेवाली संस्कृत कह सकते हैं 1
रचयिता -- इस प्रबन्धावलि के रचयिता जिनभद्र हैं जो उदयप्रभसूरि के शिष्य थे । इनके विषय में विशेष जानकारी नहीं मिलती। जिनभद्र ने ऐतिहासिक और पौराणिक कथानकों के संग्रह स्वरूप यह प्रबन्धावलि वस्तुपाल के पुत्र जयन्तसिंह के पठन-पाठन के लिए तैयार की थी ।
१. पुरातनप्रबन्ध संग्रह का प्रास्ताविक वक्तव्य, पृ० ८.
२. इसकी भाषा और शब्दों के लिए देखें :
मण्डल, पृ० २०३-४.
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महामात्य वस्तुपाल का साहित्य
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