________________
जैन साहित्य का बृहद् इतिहास ४. कर्मफल बताने के लिए प्रायः सभी जैन महाकाव्यों में पूर्व भव की कथाओं एवं अवान्तर कथाओं की योजना की गई है।
५. जैन महाकाव्यों में कविसमय-सम्मत वर्ण्य-विषयों का वर्णन अर्थात् संध्या, रात्रि, सूर्योदय, ऋतु, वन, पर्वत, जल-क्रीड़ा आदि का वर्णन कभी मूलकथा के साथ तो कभी अवान्तर कथाओं के साथ दिया गया है। अमरचन्द्रसूरि ने तो वर्ण्य-विषयों के उपवर्ण्य विषय को बताकर वस्तुवर्णन प्रसंग को बढ़ा दिया है।
६. जैन काव्यों ने रस को मूलतत्त्व के रूप में माना है। अधिकांश जैन काव्यों में शान्त रस की ही प्रधानता है; शृंगार, वीर आदि को गौण रूप दिया गया है।
७. जैन महाकाव्यों में आवश्यकतानुसार अलंकारों का उपयोग हुआ है। वाग्भट ने अलंकारों को महाकाव्य के प्रमुख लक्षणों में नहीं माना है।
८. जैन महाकाव्यों में अनेकों की भाषा-शैली प्रौढ़ है पर अधिकांश पौराणिक काव्यों की भाषा गरिमापूर्ण नहीं है। उनमें प्राकृत, अपभ्रंश, देशी शब्दों के संमिश्रण दिखते हैं।
९. जैन महाकाव्यों का उद्देश्य विशेषकर धर्म के फल को प्रदर्शित करना है फिर भी उनमें त्रिवर्ग धर्म, अर्थ और काम के फल की चर्चा है और अन्तिम फल मोक्षप्राप्ति बताया है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org