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प्रास्ताविक
११. महाकाव्य के अनिवार्य तत्त्वों में अलंकार की गणना में सभी आचार्य एकमत नहीं हैं।
१२. महाकाव्य को छन्दोबद्ध होना आवश्यक है। कुछ आचार्यों के मत से सर्ग के अन्त में भिन्न छन्दों का प्रयोग करना चाहिये ।
१३. महाकाव्य में उदात्त भाषा का प्रयोग होना चाहिये। उसे समस्त रीतियों, गुणों और अलंकार से युक्त होना चाहिये । महाकवि का भाषा पर असाधारण अधिकार होना चाहिये।
१४. विश्वनाथ के अनुसार महाकाव्य का नामकरण कवि, कथावस्तु अथवा चरितनायक के नाम पर होना चाहिये।
१५. वाग्भट के अनुसार प्रत्येक सग का अन्तिम पद्य कवि द्वारा अभिप्रेत श्री, लक्ष्मी आदि शब्दों से अंकित रहना चाहिये ।
पाश्चात्य और भारतीय महाकाव्यविषयक मान्यताओं पर यदि सरसरी दृष्टि से विचार करें तो ज्ञात होगा कि उनमें विशेष अन्तर नहीं है। फिर भी भारतीय काव्यशास्त्रियों ने महाकाव्य को कविपरम्परा-सम्मत नियमों से कसने की कोशिश की है। वे मानते हैं कि महाकाव्य में सुनिश्चित वर्ण्य विषयों का वर्णन अवश्य होना चाहिये। महाकाव्य के आरम्भ में मंगलाचरण, वस्तुनिर्देश, सजन-दुर्जन चर्चा, कवि द्वारा आत्मलाघव प्रदर्शन आदि तथा महाकाव्य के अन्त में गुरुपरम्परा की प्रशस्ति आदि होना चाहिये। महाकाव्य को सगंबद्ध होना चाहिये
और सर्गों की संख्या कम-से-कम आठ होनी चाहिये तथा सर्ग के अन्तिम पद्य में कवि द्वारा अभिप्रेत शब्द की मुद्रा लगानी चाहिये । ___ महाकाव्य के उपर्युक्त तत्त्वों के प्रकाश में जैन महाकाव्यों में जो समानता और विशेषता है उसे निम्न प्रकार से देख सकते हैं
१. जैन महाकाव्य सर्ग के अतिरिक्त, आश्वासक, परिच्छेद, उत्साह, कांड, पर्व, लम्भक, प्रकाश आदि में विभक्त हैं।
२. प्रायः सभी महाकाव्यों का प्रारम्भ मंगलाचरण, वस्तुनिर्देश, सजनदुर्जन-चर्चा, आत्मलघुता, पूर्वाचार्यों के स्मरण से होता है और अधिकांश जैनकाव्यों के अन्त में कवि का परिचय और उसकी गुरु-परम्परा दृष्टिगत होती है।
३. उनका कथानक इतिहास, पुराण, दन्तकथा, प्राचीन महाकाव्य, समसामयिक घटना या व्यक्ति पर आधारित है। उनका कथानक व्यापक और सुसंगठित है। अधिकांश महाकाव्यों में पाँच नाट्यसंधियों की योजनापूर्वक. कथानक का विस्तार किया गया है।
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