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कथा-साहित्य
३८३ इसे जैन कथाओं में अन्नदान के माहात्म्य को प्रकट करने के लिए जोड़ा गया है (चरित्रमन्नदानस्य कुर्वे कौतूहलप्रियम्)। इस दृष्टि से कवि की यह कृति शताब्दियों तक लगातार जैन सम्प्रदाय में प्रिय रही है।
फिर भी कवि ने भोन सम्बन्धी अनेक ऐतिहासिक तथ्यों के विश्लेषण में मौलिकता प्रदर्शित की है।
रचयिता और रचनाकाल--भोजचरित्र के प्रत्येक प्रस्ताव के अन्त में रचयिता का नाम रानवल्लभ पाठक दिया गया है जो धर्मघोषगच्छ के महीतिलकसूरि के शिष्य थे। रचना के कालनिर्णय के सम्बन्ध में दो बातों से सहायता मिलती है : एक तो महीतिलकसूरि का उल्लेख करनेवाले सं० १४८६ से १५१३ तक के शिलालेख मिले हैं। दूसरी इसकी प्राचीनतम हस्त० प्रति सं० १४९८ की मिली है। इससे यह स्पष्ट है कि राजवल्लभ ने सं० १४९८ के पहले इसे अवश्य लिख डाला होगा।
राजवल्लभ की अन्य रचनाओं में चित्रसेन-पद्मावती (सं० १५२४ ) और षडावश्यकवृत्ति ( सं० १५३०) मिलती हैं।
भोजप्रबंध-उक्त राजवल्लभ के समकालीन शुभशीलगणि ने एक अन्य भोजप्रबंध की रचना की है जिसका ग्रन्थान ३७०० बतलाया गया है। शुभशीलगणि तपागच्छीय सोमसुन्दर के प्रशिष्य और मुनिसुन्दर के शिष्य थे। इनको विक्रमचरित्र, भरतेश्वर-बाहुबलिवृत्ति आदि अनेको कथात्मक रचनाएँ मिलती हैं।
एक दूसरे भोजप्रबंध' की रचना सं० १५१७ में रत्नमण्डनगणि ने की है। इस प्रबंध में भोज के माने गये दो पुत्रों की कथाएँ प्रमुख होने से इसे देवराजप्रबंध या देवराज-वत्सराजप्रबंध भी कहते हैं। इनकी अन्य रचनाओं में उपदेशतरंगिणी, सुकृतसागर तथा पृथ्वीधरप्रबंध मिलते हैं। इनका परिचय पृथ्वीधरप्रबंध के प्रसंग में दिया गया है।
१. भोजचरित की अंग्रेजी प्रस्तावना, पृ० ११-२३. २. वही प्रस्तावना, पृ. ५, जैन लेखसंग्रह, संख्या १८०, २३११, ११४५,
१४९२ और १५३४, बीकानेर जैन लेखसंग्रह, संख्या ९०१, १९३५. ३. जिनरस्नकोश, पृ० २९९, ४. वही. ५. वही, पृ० १७८.
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