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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
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२. ऐतिहासिक महाकाव्य - रोम, यूनान, चीन जैसी इतिहास लेखन की परम्परा भारतीय इतिहास में यद्यपि नहीं देखी जाती पर भारतीय कवि उस शैली से एकदम अपरिचित हों यह नहीं कहा जा सकता । इतिहास को रखने की विविध शैलियों – अभिलेख, ग्रन्थ-प्रशस्तियाँ, प्रतिमालेख, पट्टावलियाँ, तीर्थमालाएँ आदि के दर्शन हमें भारतीय साहित्य में प्रचुररूपेण होते हैं । ऐतिहासिक महाकाव्य के रूप में गौडवहो, भुवनाभ्युदय, नवसहसाङ्काचरित, विक्रमाङ्कदेवचरित, राजतरंगिणी, द्वयाश्रयकाव्य, सुकृतसंकीर्तन आदि भी उपलब्ध हैं । इन ऐतिहासिक महाकाव्यों को काव्यकारों ने अनेक पौराणिक, काल्पनिक एवं अनैतिहासिक घटनाओं से रंग दिया है, अतः उन्हें विशुद्ध ऐतिहासिक महाकाव्य नहीं कह सकते ।
३. पौराणिक महाकाव्य - पौराणिक महाकाव्यों के आदि उदाहरण रामायण और महाभारत हैं । रामायण की रचना की उत्तरावधि दूसरी शताब्दी ईस्वी और महाभारत के अन्तिम रूप धारण करने की उत्तरावधि पाँचवीं शताब्दी ईस्वी मानी जाती है । उनके बाद ही ६ठी शताब्दी में विमलसूरि की प्राकृत कृति पउमचरिउ, ७वीं शताब्दी में रविषेण का संस्कृत पद्मपुराण तथा बाद की शताब्दियों में सैकड़ों रचनाएँ इस शैली में लिखी गई हैं। जैन कवियों ने मध्यकाल में संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं में अनेक पौराणिक महाकाव्य निर्मित किये हैं । इन भाषाओं के महाकाव्यों ने अपने समकालीन अन्य भाषाओं के महाकाव्यों को प्रभावित किया है। अपभ्रंश के प्रेमाख्यानक काव्यों में जो रोमांचक तत्त्व प्राप्त होते हैं उनका समावेश भी इन पौराणिक महाकाव्यों में यत्रतत्र हुआ है
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जैन महाकाव्यों का अन्य साहित्य में स्थान :
विश्व - साहित्य की श्रेणी में जैन महाकाव्यों की स्थिति जानने के लिए तथा भारतीय महाकाव्यों की प्रमुख प्रवृत्तियों की समकोटि में उनकी देन को अवगत करने के लिए यह आवश्यक है कि पाश्चात्य और भारतीय महाकाव्यों की प्रमुख प्रवृत्तियों पर एक दृष्टिपात कर लें ।
पाश्चात्य साहित्य में महाकाव्य को 'एपिक' कहा जाता है । प्राचीन और अर्वाचीन काव्यमनीषियों ने अर्थात् अरस्तू, केम्स, हाब्स, विलियम रोज बैनिट, वाल्टेयर, एम० डिक्सन, एबरक्रोम्बी, टिलयार्ड, सी० एम० बाबरा, डब्ल्यू ० पी० केर प्रभृति विद्वानों ने महाकाव्य की जो व्याख्याएँ और परिभाषाएँ निर्धारित की हैं उनसे निम्नांकित प्रमुख तत्त्वों की जानकारी होती है
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