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कथा-साहित्य
इस कथानक को लेकर प्राकृत भाषा में निवाणलीलावई नामक कथा-ग्रन्थ सं० १०८२ और १०९५ के मध्य आशापल्लो में जिनेश्वरसूरि ने रचा। समस्त ग्रन्थ प्राकृत पद्यों में है पर मूल रचना अभी तक अनुपलब्ध है। इसका उल्लेख अनेक ग्रन्थों में किया गया है और उसके पदलालित्य आदि गुणों की प्रशंसा की गई है। जिनेश्वरसूरि का परिचय उनकी अन्य रचना कथाकोषपकरण के साथ दिया गया है।
उक्त प्राकृत रचना के कथानक को आधार बना संस्कृत में निर्वाणलीलावतीकाव्य की रचना इक्कीस उत्साहों में की गई है। इसकी रचना ५३५० श्लोकप्रमाण है। प्रत्येक उत्साह के अन्त में एक पुष्पिका दी गई है जिसमें कवि ने जिनेश्वरसूरि का आभार स्वीकार किया है। यह जिनांक महाकाव्य है और इसे महाकाव्योचित लक्षणों से भूषित करने के प्रयत्न भी दिखाई पड़ते हैं। इस
काव्य की शैली को अलंकारों से भी सुसज्जित किया गया है। वैसे इसमें अधिकता से अनुष्टुभ् छन्दों में ही कथा वर्णित है पर पाँचवें और बारहवें में विविध छन्दों का प्रयोग हुआ है।
काव्य के अन्त में ग्रन्थकर्ता की प्रशस्ति दी गई है जिससे इसके रचयिता जिनरत्नसूरि की गुरुपरम्परा पर प्रकाश पड़ता है। वे सुधर्मागच्छ के थे। इसी गच्छ में निवाणलोलावई प्राकृत महाकाव्य के रचयिता जिनेश्वरसूरि हुए। उनकी शिष्यपरम्परा में क्रमशः जिनचन्द्रसूरि-नवांगी टीकाकार अभयदेवसूरि-जिनवल्लभसूरि-जिनदत्तसूरि-जिनचन्द्रसूरि-जिनपतिसूरिजिनेश्वरसूरि हुए। इन जिनेश्वरसूरि के शिष्य जिनरत्नसूरि हुए।
खरतरगच्छ बृहद्गुर्वावलि में बताया गया है कि जिनरत्नसूरि का पूर्वनाम विजयवद्धनगणि था । जिनेश्वरसूरि ने उन्हें वाग्भटमेरु (बाड़मेर) में सं० १२८३ की माघ कृष्ण ६ को दीक्षा दी थी। सं० १३०४ में वैशाख सुदी १४ के दिन जिनेश्वरसूरि ने विजयवर्धनगणि को आचार्यपद पर स्थापित किया और उन्हें जिनरत्नसूरे नाम प्रदान किया। सं० १३२६ में जिनश्वरसूरि के नेतृत्व में तथा २० १३३९ में जिनप्रबोधसूरि के नायकत्व में निकाली संघयात्राओं में
., जिनरत्नकोश, पृ० १३८. २. वही, पृ० ३३८. ३. निर्वाणलीलावती, प्रशस्ति, श्लोक १३.१६.
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