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कथा-साहित्य
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मालाकथासंक्षेप भी कहा गया है । यह उद्योतनसूरि की विशाल प्राकृत रचना कुत्रच्यमाला का शैली पूर्ण संस्कृत में संक्षिप्त रूपान्तर है । कुवलयमाला को जबकि १३००० या १०००० ग्रन्थाग्र प्रमाण बतलाया है तो यह उस परिमाण में ३८०४, ३८९४ या ३९९५ ग्रन्थाग्र मानी गई है । कुवलयमाला में जब कि कोई त्रिभाग नहीं है तो यह चार प्रस्तावों में विभाजित है । दूसरे और चौथे प्रायः समान विस्तार के हैं जबकि प्रथम उनसे आधा जैसा है और तृतीय उनसे दुगुने से थोड़ा कम है । कुवलयमाला के मूल और संस्कृत दोनों रूपों में गद्य और पद्य स्पष्टतः मिले हैं । यह प्रांजल तथा विद्वत्तापूर्ण शैली में लिखा हुआ एक संस्कृत चम्पू ही है । इसमें प्राकृत रचना के नगर, प्राकृतिक दृश्य, उपमाओं और उत्प्रेक्षाओं आदि के लम्बे विवरणों को कम कर दिया गया है और कथा की बात एक भी नहीं छोड़ी गई है । पद्यों का मनोहर है । यह रचना भाव, भाषा-प्रवाह आदि की है । यद्यपि इसमें गौण पात्रों के नामों और पदों में थोड़ा-बहुत अन्तर है पर प्रस्तुत संक्षेप के लेखक ने मूल कुवलयमाला में भ्रम पैदा करनेवाले कई स्थलों को स्पष्ट किया है । शत्रुंजय तीर्थ के विषय में कुछ पद्य जोड़े हैं, आदि '
हुए
सुन्दर
दृष्टि से
रचयिता और रचनाकाल - इसके रचयिता परमानन्दसूरि के शिष्य रत्नप्रभाचार्य हैं । इसका सशोधन उस काल के प्रसिद्ध संशोधक प्रद्युम्नसूर ने किया था २ इसलिए रत्नप्रभ प्रद्युम्नसूरि के समकालीन ( १३वीं सदी का मध्य ) हैं ।
१. कुवलयमाला, अंग्रेजी प्रस्तावना, पृ० ९४.
२. वही, पृ० ९६.
निर्वाणलीलावतीकथा- - यह कथा भी स्त्रीपात्र प्रधान नहीं है फिर भी आकर्षण के लिए यह नाम चुना गया है। कुवलयमाला के समान ही इसमें भी संमार-प्ररिभ्रमण के कारणों को प्रदर्शित करनेवाली कथाएँ दो गई हैं । कुवलयमाला में जिस तरह क्राध, मान, माया, लोभ और मोह से प्रभावित व्यक्ति कथा के पात्र बनाये गये हैं उसी तरह निर्वाणलीलावतो में पाँच दोष-युगलों अर्थात् ( १ ) हिंसा-क्रोध, (२) मृषा-मान, (३) स्तेय - माया, ( ४ ) मैथुन - मोह और ( ५ ) परिग्रह-लोभ को तथा सर्शन आदि पंच-इन्द्रियों के वशीभूत होने को संसार का कारण बताते हुए उनका फल भोगनेवाले व्यक्तियों की कथाएँ
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संस्कृत रूपान्तर प्रसादपूर्ण रचना
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