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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास सूत्र की वृत्ति में 'चकारो निरलंकारयोरपि शब्दार्थयोः क्वचित् काव्यत्वख्यापनार्थः लिखा है और दूसरे जैन साहित्यशास्त्री वाग्भट ( १२वीं श०) ने भी 'शब्दार्थों, निर्दोषौ सगुणौ प्रायः सालंकारौ काव्यम्' कहकर इस सूत्र की वृत्ति में 'प्रायः सालंकाराविति निरलंकारयोरपि शब्दार्थयोः क्वचित्काव्यत्वख्यापनार्थम्" द्वारा निरलंकार शब्दार्थ को भी काव्य माना है। पीछे १५वीं शताब्दी के कवि नयचन्द्रसूरि ने अपने हम्मीरमहाकाव्य (वि. सं. १४५० के लगभग) में अपशब्द शब्द ( व्याकरण की दृष्टि से सदोष) के प्रयोग को भी काव्य में स्थान देते हुए कहा है-'प्रायोऽपशब्देन न काव्यहानिः समर्थताऽर्थे रस'संक्रमश्चेत्३ अर्थात् यदि किसी कृति में रसमग्न करने की क्षमता है तो फिर उसमें यदि कुछ अपशब्द (सदोष शब्द) भी हों तो उनसे काव्यत्व की हानि नहीं है।
इस तरह हम देखते हैं कि काव्य की परिभाषा युग की आवश्यकता के अनुसार बदलती रही है और विशाल एवं बहुविध काव्य राशि को देखते हुए उनके काव्यत्व को जाँचने के लिए एक मापदण्ड स्थापित करना कठिन है। सचमुच में 'निरंकुशाः कवयः' यह लोकोक्ति कवियों के लिए चरितार्थ है।
काव्य के प्रकार-साधारणतः काव्य के तीन भेद होते हैं-उत्तम, मध्यम और जघन्य । उत्तम व्यंजनाप्रधान, मध्यम लक्षणाप्रधान और अधम अभिधाप्रधान काव्य होते हैं। काव्य विधा की दृष्टि से काव्य के दो प्रकार हैं : १. प्रेक्ष्यकाव्य और २. श्रव्य-काव्य । जो रंगमंच पर अभिनय करने के लिए रचे गये हों वे प्रेक्ष्य-काव्य हैं। उनका अभिनय आखों द्वारा देखा जाता है। जो काव्य कानों द्वारा सुने जायँ उन्हें श्रव्य-काव्य कहा जाता हैं। प्राचीन समय में काव्य अधिकतर सुने जाते थे, उनका प्रचार गान द्वारा होता था। पढ़ने के रूप में पुस्तके कम उपलब्ध होती थीं। आचार्य हेमचन्द्र ने प्रेक्ष्य-काव्य के दो भेद किये हैं-१. पाठ्य और २. गेय । पाठ्य के अन्तर्गत उन्होंने नाटक, प्रकरण, नाटिका, समवकार, व्यायोग, प्रहसन, सट्टक आदि माना है और गेय के अन्तर्गत रासक, श्रीगदित, रागकाव्यादि माने हैं। श्रव्य-काव्य के तीन प्रकार माने गये हैं : १. गद्य, २. पद्य और ३. मिश्र । गद्य का अर्थ है जो बोलचाल योग्य हो। फिर भी
१. काव्यानुशासन. २. वही. ३. सर्ग १४. ३८.
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