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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
है । उसी को संस्कृत छन्दों में मथनसिंहकथा' के रूप में प्रस्तुत किया गया है I रचयिता एवं रचनाकाल अज्ञात
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विद्याविलास नृपकथा - उत्तरवर्ती मध्ययुग में पुण्य के प्रभाव को बतलाने के लिए विद्याविलास नृप की कथा जैन कवियों को बड़ी रोचक लगी । इस पर संस्कृत और गुजराती में अनेकों रचनाएँ लिखी गई हैं। संस्कृत में गद्यात्मक एक रचना की हस्तलिखित प्रति सं० १४८८ की मिली है। रचना मलयहंस की मिली है । परन्तु समय ज्ञात नहीं है । पद्यात्मक देवदत्तगणिकृत है । अन्य रचनाएँ अज्ञातकतृ के हैं। इसी कथा से सम्बद्ध एक विद्याविलाससौभाग्यसुन्दरकथानक भी मिलता है पर इसके कर्ता ज्ञात नहीं हैं ।
दूसरी गद्यात्मक तीसरी रचना
मंगलकलशकथा — दान के महत्त्व को प्रकट करने के लिए मंगलकलशकुमार की कथा पर अनेकों ग्रन्थ लिखे गये हैं । यह कथा उपदेशप्रासाद में भी आई है।
इस पर उदयधर्मगणिकृत सं० १५२५ की संस्कृत रचना मिलती है। दूसरी रचना हंसचन्द्र के शिष्य ( अज्ञातनामा ) की है ।' तीसरी भावचन्द्र की है । ' गुजराती में तो एतद्विषयक बीसियों रचनाएँ मिलती हैं । "
विनयंधरचरित - जिनमत के दृढ़ श्रद्धान के महत्त्व के लिए विनयंधर नृप की कथा हरिषेण के बृहत्कथाकोश में आई है । उक्त कथा पर प्राकृत में एक अज्ञातकर्तृक रचना" तथा संस्कृत गद्य में शीलदेवसूरिकृत रचना मिलती है ।
मत्स्योदरकथा – शान्तिनाथचरित में पुण्य ( धर्म ) की महिमा को प्रकट
१. जिनरत्नकोश, पृ० ३००.
२ - ६. वही, पृ० ३५६.
७. वही, पृ० २९९.
८. वही.
९. वही; हीरालाल हंसराज, जामनगर, १९२४.
१०. जैन गुर्जर कविओो, तीनों भागों की कृतियों की अनुक्रमणिका देखें. ११-१२. जिनरत्नकोश, पृ० ३५७.
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