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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
दिया है ।' विमलनाथचरित के दानधर्माधिकार में यही कथा संस्कृत गद्य में दी
गई है।
रत्नचूडकथा पर जिनवल्लभसूरि, नेमप्रभ और राजवर्धन ने भी ग्रन्थ रचे हैं।
रत्नशेखरकथा --- राजा रत्नशेखर और रानी रत्नवती की लौकिक कथा को जैन कथाकारों ने पर्वतिथि आराधन के कल्पनाबन्ध में परिवर्तित कर प्रकट किया है ।
कथावस्तु — रत्नपुर का राजा रत्नशेखर किन्नर युगल से रत्नवती की प्रशंसा सुन मुग्ध होकर मरना चाहता है । पर उसका मन्त्री आश्वासन देकर रत्नवती का पता लगाने जंगलों में भटकता है। एक यक्षकन्या के निर्देश से वह अग्निकुण्ड में गिरकर पाताललोक में पहुँचता है और वहाँ एक यक्ष से उस कन्या ( जो मानुषी थी ) की उत्पत्ति जान उससे विवाह कर लेता है ( कन्या की उत्पत्ति में उसके मनुष्यभव के पिता-माता की कथा दी गई है जो पर्वतिथि भंग करने से यक्ष योनि में उत्पन्न हुए थे ) । उस यक्ष ने ही उसे रत्नवती का पता बतलाया जो कि सिंहलनरेश की पुत्री थी । उस यक्ष ने उसे विद्याबल से सिंहलद्वीप भी भेज दिया । वहाँ वह योगिनी के वेष में रत्नवती से मिला । रत्नवती ने बतलाया कि वह उस पुरुष से विवाह करेगी जो पूर्वजन्म में उसका मृगरूप में पति था । योगिनी ने भविष्य का विचारकर बतला दिया कि उसका वही पति उसे शीघ्र ही कामदेव के मन्दिर में द्यूतक्रीड़ा करता हुआ मिलेगा समझाकर वह उसी यक्षविद्या के बल से अपने राजा के सात माह की अवधि समाप्त होने पर चिता में जल मरने को तैयार था । उसे साथ लाकर कामदेव के मन्दिर में सिंहल राजकन्या से भेंट करा दी। दोनों में विवाह हो गया। दोनों अपने नगर लौट आये। एक बार एक शुक और शुको आकर दोनों के हाथों में बैठ गये और पूछने पर विद्वत्तापूर्ण वार्तालाप करते हुए
।
इस प्रकार रत्नवती को पास रत्नपुर पहुँचा जो
दोनों मूच्छित होकर मृत्यु को प्राप्त हुए । राजा ने एक मुनि से उक्त घटना पूछने पर जाना कि वे उसके पूर्वज थे और पर्वतिथि का भंग करने से पक्षियोनि में उत्पन्न हुए थे । अब वे पाप से मुक्त हो धरणेन्द्र- पद्मावती हुए हैं । यह जान राजा, रानी, मंत्री आदि ने पर्वतिथि पालन का नियम लिया और अन्त में व्रत के प्रभाव से स्वर्ग गये ।
१. पृ० १०२-१०३.
२. जिनरत्नकोश, पृ० ३२६-३२७.
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