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कथा-साहित्य
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नाम है-सोमदेव, हरिषेण ( अपभ्रंश के कवि ), वादिराज, प्रभंजन, धनंजय, पुष्पदंत ( अपभ्रंश के कवि ), वासवसेन । ___यदि उक्त भट्टारक ने इन सब ग्रन्थों को देखकर ही यह उल्लेख किया है तो समझना चाहिये कि वि० सं० १६५० तक प्रभंजन का यशोधरचरित था।
२. यशोधरचरित-यह ४ सर्गों का क लघु पर महत्त्वपूर्ण काव्य है। इसमें विविध छन्दों के कुल २९६ पद्य हैं।' इस काव्य में लेखक ने किन्हीं पूर्वाचार्यों का उल्लेख नहीं किया है, केवल समन्तभद्रादि (१.३) मात्र कहकर रह गया है। इस काव्य को प्रभावक बनाने के लिए प्रौढ संस्कृत भाषा में कई रसों का वर्णन किया गया है, यथा-अभयरुचि और अभयमती को बलि के लिए ले जाते समय करुण रस, महावत के वर्णन में वीभत्स रस, चतुर्थ सर्ग में वसन्त वर्णन आदि । कथा में सोमदेव के यशस्तिलकचम्पू का अनुसरण किया गया है।
रचयिता और रचनाकाल-इस काव्य के रचयिता वादिराज हैं जो द्रविडसंघ की शाखा नन्दिसंघ अरुंगलान्वय के आचार्य थे। इनकी अन्य कृतियों में पार्श्वनाथचरित, एकीभावस्तोत्र तथा न्यायग्रन्थ न्यायविनिश्चयविवरण,
अध्यात्माष्टक, त्रैलोक्यदीपिका, प्रमाणनिर्णय प्राप्त हैं। इनका विशेष परिचय पार्श्वनाथचरित के साथ दिया गया है।
इस काव्य के रचनाकाल के संबंध में इसी काव्य से दो महत्त्व की सूचनाएं मिलती हैं। पहली तीसरे सर्ग के अन्तिम ८५वे पद्य में 'व्यातन्वजयसिंहतां रणमुखे दीर्घ दधौ धारिणीम्' और दूसरी चौथे सर्ग के उपान्त्य पद्य में 'रणमुखजयसिंहो राज्यलक्ष्मी बभार' । इन पद्यांशों में कवि ने चतुराई से अपने समकालीन नरेश दक्षिण के चौलुक्य वंशी जयसिंह का उल्लेख किया है। इससे ज्ञात होता है कि इस काव्य की रचना जयसिंह के समय ( शक सं० ९३८-९६४ ) में हुई है। इसकी रचना वादिराज ने पाश्वनाथचरित के बाद की थी क्योंकि इसमें उन्होंने अपने को पार्श्वनाथचरित का कर्ता बतलाया है।' चूंकि १. सं०-टी० ए० गोपीनाथ राव, सरस्वती विलास सिरीज सं० ५, वंजौर,
१९१२; जिनरत्नकोश, पृ० ३१९. २. १. ४०; २. ३९-४०, ४ सर्ग का प्रारम्भ. ३. जैन साहित्य और इतिहास, पृ० १९१-३०८. ४. श्रीपार्श्वनाथकाकुत्स्थचरितं येन कीर्तितम् ।
तेन श्रीवादिराजेन दृब्धा याशोधरी कथा ॥ १.५.
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