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कथा-साहित्य
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ज्येष्ठ सुदी पंचमी, गुरुवार के दिन की थी। प्रशस्ति के अनुसार इनकी गुरुपरम्परा इस प्रकार है : निवृत्तिकुल में सूराचार्य हुए, उनके शिष्य ज्योतिष और निमित्तशास्त्र के ज्ञाता देल्लमहत्तर, उनके शिष्य दुर्गस्वामी हुए जो गृहस्थावस्था में धनी, कीर्तिशाली ब्राह्मण थे तथा जिनका मिल्लमाल में स्वर्गवास हुआ था। उनके शिष्य सिद्धर्षि हुए । दुर्गस्वामी और सिद्धर्षि दोनों गुरु-शिष्यों को दीक्षा गर्गर्षि ने दी थी । यद्यपि यह बात सिद्धर्षि ने नहीं लिखी' पर उन्होंने हरिभद्रसूरि की स्तुति अधिक की है और उन्हें अपना 'धर्मबोधकरो गुरुः' माना है। इससे कुछ विद्वानों का मत है कि हरिभद्रसूरि उनके गुरु थे। पर दोनों के काल का बड़ा अन्तर देखते हुए यह मानना सम्भव नहीं । संभवतः सिद्धर्षि ने हरिभद्र के प्रति सम्मान का इतना अधिक भाव इसलिए दिखाया है कि उनके ग्रन्थों से उन्हें बड़ी प्रेरणा मिली थी, विशेषकर उनकी ललितविस्तरा टीका से ।
यह कथाग्रन्थ मिल्लमाल नगर के जैन मन्दिर में लिखा गया था और दुर्गस्वामी की 'गणा' नाम की शिष्या ने इसकी प्रथम प्रति तैयार की थी।
सिद्धर्षि का प्रभावकचरित ( १४ ) में भी चरित दिया गया है जिसमें इन्हें माघकवि का चचेरा भाई कहा गया है पर इसमें कोई ऐतिहासिक तथ्य नहीं है।
रूपकात्मक धर्मकथा पर संस्कृत में दूसरा ग्रन्थ मदनपराजय है ।
मदनपराजय-काम, मोह, जिन, मोक्ष आदि को मूर्तिमान पात्रों का रूप देकर एक लघुकाव्य का निर्माण किया है जिसमें जिनराज द्वारा कामदेव की पराजय का चित्रण हुआ है।
कथावस्तु-भवनगर का राजा मकरध्वज एक समय अपने प्रधान सेनापति मोह द्वारा यह जानकर कि जिनराज से मुक्तिकन्या का विवाह हो रहा है, उन्हें रोकने के लिए मुक्तिकन्या के पास रति और प्रीति नामक अपनी पत्नियों को भेजता है तथा राग और द्वेष को जिनराज के पास भेजता है। पर वह अपने प्रयत्न में सफल नहीं होता है और जिनराज द्वारा उसके दूत निकाल दिये जाते हैं । उधर मकरध्वज का सेनापति मोह और इधर जिनराज का सेनापति संवेग सेनाओं की तैयारी कर चढ़ाई कर देते हैं। दोनों की सेनायें उलझ जाती हैं। स्वयं जिनराज से मकरध्वज
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१. संवत्सरशतनवके द्विषष्टिसहितेऽतिलंधिते चास्याः ।
ज्येष्ठे सितपञ्चम्यां पुनर्वसौ गुरुदिने समाप्तिरभूत् ॥ २. जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास, पृ० १८३.
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