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________________ कथा-साहित्य फेंक दिया। किसी प्रकार मैं तट पर पहुँचा और दुर्दशा में यत्र-तत्र भ्रमण करने लगा। एक समय जब मैं धन गाड़ना चाहता था तो मुझे एक वैताल ने खा लिया। पुनः नरक और तिर्यञ्च लोक के चक्कर लगाकर मैं धनवाहन नामक राजकुमार हुआ और अपने चचेरे भाई अकलंक के साथ बढ़ने लगा। अकलंक धर्मात्मा जैन बन गया और उसके द्वारा मैं सदागम आचार्य के सम्पर्क में आ गया। परन्तु महामोह और परिग्रह से भी मेरी मित्रता हो जाती है और मैं उनके पूर्णतः वशीभूत हो गया। इससे मैं निर्दय शासक बन गया किन्तु दुर्नीति के कारण हटा दिया गया और दुःखपूर्वक मरा । मैंने पुनः नरक और तिर्यग लोक का भ्रमण किया। इसके बाद साकेत नगरी में अमृतोदर नाम से मनुष्य हुआ, और संसारी जीवन के उच्चस्तर पर चलने लगा। एक जन्म में राजा गुणधारण हुआ। यहाँ सदागम और सम्यग्दर्शन से मेरी मैत्री हुई जिससे मैं धर्मात्मा श्रावक और अच्छा शासक हुआ और मेरा क्षमा, मृदुता, ऋजुता, सत्य. शुचिता आदि कुमारियों से विवाह हुआ। फलतः मैंने न्यायनीति से राज्य किया और अन्त में मुनिव्रत धारण किये तथा मरकर देव हुआ और फिर मनुष्य । अब मैं वही संसारी जीव अनुसुन्दर सम्राट हूँ। इस बार महामोह का मुझ पर कोई प्रभाव नहीं । सदागम और सम्यग्दर्शन ही मेरे अन्तरंग मित्र हैं। इस समय मैं सबके कल्याणार्थ अपना यही अनुभव सुनाने के लिए चोर के रूप में उपस्थित हुआ हूँ और पुनर्जन्मों के चक्र को कहता हूँ। इसके बाद वह संसारी जीव अपना वृत्तान्त सुनाकर ध्यानमग्न हो गया और शरीर छोड़ उत्तम स्वर्ग में देव हुआ । महती कथा का यह उपर्युक्त अति संक्षिप्त सार है। मूल में समस्त वृत्तान्त विस्तार से सरल, सरस और सुन्दर संस्कृत गद्य में और कहीं-कहीं पद्य में वणित है । इसमें बीच में कुछ बड़े और कुछ छोटे पद्य आये हैं और प्रत्येक अध्याय की समाप्ति पर बड़े-बड़े छन्द भी देखने को मिलते हैं। इसमें अन्य भारतीय आख्यानों के समान ही कथानक के ढाँचे में अनेक उपकथाएँ भी समाविष्ट की गई हैं। ___ यह मूल कथा रूपक ( Allegory ) या रूपकों के रूप में है क्योंकि इसमें न केवल प्रधान कथानक, बल्कि अन्य कथानक भी रूपक के रूप में ही हैं। पर इसमें रूपक के लक्षण का ठीक-ठीक पालन नहीं किया गया है। कवि स्वयं दो प्रकार के व्यक्तियों में भेद कर देता है। एक तो नायक के बाह्य मित्र और दूसरे अन्तरंग मित्र । भीतरी मित्रों को ही व्यक्त्यात्मक एवं मूर्तात्मक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002099
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Literature, Kavya, & Story
File Size11 MB
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