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________________ २७८ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास 'प्रज्ञाविशाला' ने दयापूर्वक उसे सदागम आचार्य के आश्रय में ला दिया। वहाँ वह मुक्त होकर अपनी कथा निम्न प्रकार कहने लगा___मैं सबसे पहले स्थावर लोक में वनस्पति रूप से पैदा हुआ और 'एकेन्द्रिय नगर' में रहने लगा और वहीं पृथ्वीकाय, जलकायादि गृहों में कभी यहाँ कभी वहाँ रहने लगा। इसके बाद छोटे कीड़े-मकोड़े तथा बड़े हाथी आदि तिर्यञ्चों (त्रसलोक) में जन्मा और भटका। बहुत काल तक दुःख भोगकर अन्त में मनुष्य पर्याय में राजपुत्र नन्दिवर्धन हुआ। यद्यपि मेरा एक अदृष्ट मित्र 'पुण्योदय' था, जिसका मैं इन सफलताओं के लिए कृतज्ञ हूँ किन्तु एक दूसरे मित्र वैश्वानर के कारण गुमराह रहने लगा। इसी कारण अच्छे-अच्छे गुरुओं और उपदेशकों की शिक्षाये मुझ पर विफल हुई। वैश्वानर का प्रभाव बढ़ता ही गया और अन्त में उसने राजा दुर्बुद्धि और रानी निष्करुणा की पुत्री 'हिंसा' से विवाह करा दिया। इस कुसंगति से मैंने खूब आखेट खेला और असंख्य जीवों का शिकार किया। चोरी, द्यूत आदि व्यसनों में भी कुख्याति प्राप्त की। यथा समय मैं अपने पिता का उत्तराधिकारी राजा बना। इस दर्प में मैंने अनेक घोर कर्म किये। यहां तक कि एक राजदूत को उसके माता-पिता, स्त्री, बन्धु एवं सहायकों सहित मरवा डाला | एक बार एक युवक से मेरी लड़ाई हो पड़ी और हम दोनों ने एक-दूसरे को वेधकर मारा डाला। फिर हम दोनों नाना पापयोनियों में उत्पन्न हुए और फिर सिंह-मृग, बाज-कबूतर, अहि-नकुल आदि रूप से एक दूसरे के भक्ष्य-भक्षक बनते रहे । अन्ततः मैं रिपुदारुण नाम का राजकुमार हुआ तथा शैलराज (दर्प) और मृषावाद मेरे मित्र बने। इनके प्रभाव के कारण मुझे पुण्योदय से मिलने का अवसर न मिला। पिता की मृत्यु के पश्चात् मैं राजा बना। मैंने पृथ्वी के सम्राट की आज्ञा मानने से इन्कार कर दिया। एक बार एक जादूगर ने मुझे 'नीचा दिखाया और मेरे ही सेवकों ने मेरा वध कर दिया। अपने दुष्कृत्यों के फलस्वरूप मैं अगले जन्मों में नरक-तिर्यञ्च योनियों में भटककर अन्त में मनुष्य गति में आकर सेठ सोमदेव का पुत्र वामदेव हुआ। 'मृषावाद, माया और स्तेय' मेरे मित्र बने । एक सेठ की चोरी करने के कारण मुझे फांसी मिली और मैंने फिर नरक और तिर्यञ्च लोकों का चक्कर काटा। मैं एक बार पुनः सेठ-पुत्र हुआ। इस बार 'पुण्योदय' और 'सागर' (लोभ) मेरे मित्र बने । सागर की सहायता से मैंने अतुल धनराशि कमाई। मैंने एक राजकुमार से दोस्ती कर उसके साथ समुद्र-यात्रा की और लोभवश उसे मारकर उसका धन हड़पने का प्रयत्न किया, पर समुद्र देवता ने उसकी रक्षा की और मुझे जल में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002099
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Literature, Kavya, & Story
File Size11 MB
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