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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास प्रभाव हमारे आलोच्य युग के जैन काव्य साहित्य पर विशेष रूप से पड़ा। जैनकाव्यकारों का दृष्टिकोण, इस साहित्य को देखने से स्पष्ट झलकता है कि धार्मिक था। जैनधर्म के आचार और विचारों को रमणीय पद्धति से एवं रोचक शैली से प्रस्तुत कर धार्मिक चेतना और भक्तिभावना को जाग्रत करना उनका मुख्य उद्देश्य था। जैन कवियों ने जैन काव्यों की रचना एक ओर स्वान्तः सुखाय की है तो दूसरी ओर कोमलमति जनसमूह तक जैनधर्म के उपदेशों को पहुँचाने के लिए की है। इसके लिए उन्होंने धर्मकथानुयोग या प्रथमानुयोग का सहारा लिया है। जन-सामान्य को सुगम रीति से धार्मिक नियम समझाने के लिए कथात्मक साहित्य से बढ़कर अधिक प्रभावशाली साधन दूसरा नहीं है। उनकी कुछ रचनाओं को छोड़कर अधिकांश कृतियाँ विद्वद्वर्ग के लिए नहीं अपितु सामान्य कोटि के जनसमूह के लिए हैं। इस कारण से ही उनकी भाषा अधिक सरल रखी गई है। जनता को प्रभावित करने के लिए अनेक प्रकार की जीवनघटनाओं पर आधारित कथाओं और उपकथाओं की योजना इन काव्यग्रंथों की विशेषता है। इन विद्वानों ने चाहे प्रेमाख्यानक काव्य रचा हो अथवा चरितात्मक, सभी में धार्मिक भावना का प्रदर्शन अवश्य किया है। इस धार्मिक भावना को प्रकट करने में उन्होंने जैनधर्म के जटिल सिद्धान्तों और मुनिधर्मसम्बन्धी नियमों को उतना अधिक व्यक्त नहीं किया जितना कि ज्ञान-दर्शन-चारित्र के सामान्य विवेचन के साथ अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और परिग्रहस्वरूप सार्वजनिक व्रतो, दान, शील, तप, भाव, पूजा, स्वाध्याय आदि आचरणीय धर्मों को प्रतिपादित किया है।
(भा) विभिन्न वर्गों के अनुयायियों की प्रेरणा-त्यागी वर्ग-चैत्यवासी, वसतिवासी, यति, भट्टारक-में क्रियाकाण्डविषयक भेदों को लेकर नये-नये गणगच्छों का प्रादुर्भाव हुआ। उनके नायकों ने अपने-अपने गण की प्रतिष्ठा के लिए और अनुयायियों की संख्या बढ़ाने की दृष्टि से भिन्न-भिन्न क्षेत्रों का विशेष रूप से भ्रमण करना शुरू किया। उन लोगों ने अपने उच्च-चारित्र्य, पाण्डित्य तथा ज्योतिष, तंत्र-मंत्रादि से तथा अन्य चमत्कारों से राजवर्ग और धनिक वर्ग को अपनी ओर आकर्षित करना प्रारम्भ किया तथा विभिन्न स्थलों पर चैत्य, उपाश्रय आदि धर्मायतनों की स्थापना करने लगे और अपने बढ़ते हुए शिष्यसमुदाय की प्रेरणा से अपने आश्रयदाताओं के अनुरोध से व्रत, पर्व, तीर्थादि माहात्म्य तथा विशिष्ट पुरुषों का चरित्र वर्णन करने के लिए कथात्मक ग्रंथों की रचना की ओर विशेष ध्यान दिया। इस युग के अनेक जैन कवियों को या तो राज्याश्रय प्राप्त था या वे मठाधीश थे। राष्ट्रकूट अमोघवर्ष और उसके उत्तरा
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