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সাৱাচ্ছি माँग के अनुरूप जैन विद्वद्वर्ग ने न केवल संस्कृत में बल्कि प्राकृत और अपभ्रंश में भी अनेकविध रचनाएँ लिखी। जैन विद्वान् स्वभावतः संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश के विद्वान् थे। प्राकृत उनके धर्म-ग्रन्थों की भाषा थी और सामान्य वर्ग तक पहुँचने के लिए वे अपभ्रंश में रचनाएँ लिखकर उसका विकास कर रहे थे तथा पण्डित एवं अभिजात वर्ग से सम्पर्क के लिए संस्कृत में भी परम निष्णात थे। संस्कृत यथार्थतः उस काल तक पाण्डित्यपूर्ण विवेचनों और रचनाओं की भाषा बन गई थी। एतन्निमित्त जैनों ने न्याय, व्याकरण, गणित, राजनीति एवं धार्मिक-उपदेशप्रद विषयों के अतिरिक्त आलंकारिक
शैली में पुराण, चरित एवं कथाओं पर गद्य एवं पद्य काव्यरूप में संस्कृत रचनाएँ निर्मित की। साहित्य-निर्माण के क्षेत्र में जैनों का सर्वप्रथम ध्यान लोकरुचि की ओर रहा है इसलिए उन्होंने सामान्य जन भोग्य प्राकृत, अपभ्रंश के अतिरिक्त अनेक प्रान्तीय भाषाओं-कन्नड, गुजराती, राजस्थानी एवं हिन्दी आदि में ग्रन्थों का प्रचुर राशि में प्रणयन किया। जैनों के साहित्यनिर्माण कार्य में राजवर्ग और धनिकवर्ग की ओर से बड़ा प्रोत्साहन एवं प्रेरणा मिली थी। उसकी चर्चा हम कर चुके हैं।।
(उ) लेखनकार्य में सुविधा-जैन विद्वानों को लेखनकार्य में साधुवर्ग और समाज की ओर से भी अनेक सुविधाएँ प्राप्त थीं। जब कोई विद्वान् नवीन ग्रन्थ रचने का प्रयास करता था तो वह एतन्निमित्त लकड़ी की पाटी या कपड़े पर शब्दों को लिखा करता था और उन शब्दों की व्युत्पत्ति पर एक-दूसरे से विचार-विमर्श करता था। शब्दों के उपयुक्त प्रयोगों के लिए प्राचीन कवियों के ग्रन्थों से नमूने लिए जाते थे और भावानुकूल रचना का निर्माण कर संशोधन-कर्ताओं से उसका संशोधन करा लिया जाता था। इस प्रकार ग्रन्थ के संशोधित रूप को पत्थर-पाटी-स्लेट अथवा लकड़ी की पाटी आदि पर लिखकर उसे सुलिपिकों द्वारा ग्रन्थरूप में लिखा लिया जाता था। ग्रन्थरचना करते समय विशेष-विशेष सूचना देने के लिए विद्वान् शिष्य और साधुगण सहायक रहते थे। कितनी बार विद्वान् उपासक भी इस प्रकार की सहायता करते थे। जैन काव्य-साहित्य के निर्माण में मूल प्रेरणाएँ:
(अ) धार्मिक भावना—पूर्व और उत्तर मध्यकाल की राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक और साहित्यिक परिस्थितियों तथा लेखन कार्य की सुविधाओं का
१. प्रभावकचरित-हेमचन्द्राचार्यचरितम् .
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