________________
कथा-साहित्य
२७३
अधिकांश छोटो-बड़ो कथाओं के अच्छे संग्रह हैं। यहाँ हम कुछ का परिचय
१. धर्मपरीक्षा-यह प्राकृत गाथाओं में लिखा हुआ ग्रन्थ कवि जयराम ने विरचित किया था। इसका उल्लेख हरिषेश ने अपनी अपभ्रंश धर्मपरीक्षा में किया है और लिखा है कि उनकी यह अपभ्रंश रचना जयगमकृत धर्मपरीक्षा पर आधारित है।' जयराम के जीवनवृत्त और रचनाओं के सम्बंध में अधिक नहीं मालूम है।
२. धर्मपरीक्षा-यह एक संस्कृत ग्रन्थ है। इसमें इक्कीस परिच्छेद हैं। सारा ग्रन्थ एक सुन्दर कथा के रूप में श्लोकबद्ध है। इसमें श्लोकों की संख्या १९४५ है। इस ग्रन्थ का मूल उद्देश्य हरिभद्र के धूर्ताख्यान के समान ही अन्य धर्मों की पौराणिक कथाओं की असत्यता को, उनसे अधिक कृत्रिम, असंभव एवं समानान्तर उटपटांग आख्यान कह कर सिद्ध करना है और उनसे विमुख कर सच्ची धामिक श्रद्धा उत्पन्न करना है । यहाँ अनेक छोटे-बड़े कथानक दिये गये हैं जिनमें धूर्तता और मूर्खता की कथाओं का बाहुल्य है। कथा मनोवेग और पवनवेग दो मित्रों के संवादरूप में चलती है।
रचयिता एवं रचनाकाल-इसके रचयिता अमितगति हैं जो काष्ठासंघमाथुरसंघ के विद्वान् थे। इनकी गुरुपरम्परा इस प्रकार है-वीरसेन, उनके शिष्य देवसेन, देवसेन के शिष्य अमितगति (प्रथम), उनके नेमिषेण, नेमिषेण के माधवसेन और उनके शिष्य अमितगति । इनकी अन्य रचनाएँ हैं : सुभाषित-रत्नसन्दोह, पंचसंग्रह, उपासकाचार, आराधना, सामायिकपाठ, भावनाद्वात्रिंशिका, योगसारप्राभृत आदि ।
अमितगति धारानरेश भोज के सभा के रत्न थे। प्रस्तुत कृति को कवि ने दो महीने में ही रच डाली थी। इसका रचनाकाल विक्रम सं० १०७० १. जिनरत्नकोश, पृ० १८९; ग्यारहवीं माल इण्डिया मोरि० कान्फरेंस, १९४१
(हैदराबाद ) में पठित डा० मा० ने० उपाध्ये का लेख. २. जिनरत्नकोश, पृ० १९०, हिन्दी अनुवाद, जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय,
बम्बई, १९०८; जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी, कलकत्ता, १९०८; विण्टरनित्स, हिस्ट्री आफ इण्डियन लिटरेचर, भाग २, पृ० ५६३ मादि में सार दिया गया है; एन. मिरोनोव, डि धर्मपरीक्षा डेस अमितगति, लाइजिग,
१९०८. ३. अमितगतिरिवेदं स्वस्य मासद्वयेन ।
प्रथित विशदकीर्तिः काव्यमुद्भूतदोषम् ॥
१८
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org