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कथा-साहित्य
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प्रशस्ति से पता चलता है कि प्रद्युम्नसूरि चन्द्रगच्छ के थे। गृहस्थ अवस्था में उनके माता-पिता का नाम कुमारसिंह और लक्ष्मी था। ग्रन्थ के आदि में उन्होंने अपनी गुरुपरम्परा दी है जिससे ज्ञात होता है कि उनका सामान्य शिक्षण कनकप्रभसूरि से हुआ था। इसके अतिरिक्त नरचन्द्र मलधारी ने उन्हें उत्तराध्ययन और विजयसेन ने न्याय तथा पद्मचन्द्र ने आवश्यक सूत्र पढ़ाया था।' __ प्रद्युम्नसूरि एक बड़े भारी आलोचक विद्वान् प्रतीत होते हैं क्योंकि उन्होंने कई कृतियों का संशोधन एवं परिष्कार किया था। इनके द्वारा संशोधित कृतियों का यथा प्रसंग उल्लेख किया गया है।
धूर्ताख्यान-आचार्य हरिभद्र ने धर्मकथा का एक अद्भुत रूप आविष्कृत किया है जो धूर्ताख्यान' के रूप में भारतीय कथा-साहित्य में विचित्र कृति है । इसमें बड़े विनोदात्मक ढंग से रामायण, महाभारत और पुराणों के अतिरंजित चरित्रों और कथानकों पर व्यंग्य करते हुए उन्हें निरर्थक सिद्ध करने का प्रयास किया गया है । यह प्रचुर हास्य और व्यंग्य से परिपूर्ण रचना है । इसमें ४८० के लगभग प्राकृत गाथाएँ हैं जो पाँच आख्यानों में विभक्त हैं। यह सम्पूर्ण कृति सरल प्राकृत में लिखी गई है।
कथावस्तु-उज्जैनी के उद्यान में धूर्तविद्या में प्रवीण पाँच धूर्त अपने सैकड़ों अनुयायियों के साथ संयोगवश इकडे हुए। पाँच धूर्तों में ४ पुरुष थे
और एक स्त्री। वर्षा लगातार हो रही थी और खाने-पीने का प्रबन्ध करना कठिन प्रतीत हो रहा था । पाँचों दलों के मुखियों ने विचार-विमर्श किया। उनमें से प्रथम मूलदेव ने यह प्रस्ताव किया कि हम पाँचों अपने-अपने अनुभव की कथा कहकर सुनायें। उसे सुनकर दूसरे अपने कथानक द्वारा उसे सम्भव करें। जो ऐसा न कर सके और आख्यान को असम्भव बतलावे, वही उस दिन समस्त धूर्ती के भोजन का खर्च उठावे । मूलदेव, कंडरीक, एलाषाढ़, शश' नामक धूर्त
१.१.२२-२५. २. जिनरत्नकोश, पृ० १९८; सिंघी जैन ग्रन्थमाला (सं० १५), बम्बई,
१९४४; इस पर डा० उपाध्ये की अंग्रेजी प्रस्तावना विशेषरूप से पठनीय है। मूलदेव और शश एकदम काल्पनिक नाम नहीं है। मूलदेव को चौरशास्त्र प्रवर्तक माना जाता है और 'चतुर्भाणी' में शश का उल्लेख मूलदेव के मित्र के रूप में मिलता है।
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