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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
समरादित्यचरित्र नाम से मतिवर्धनकृत एक अन्य लघु रचना उपलब्ध है।' इसी तरह माणिक्यसूरिकृत समरभानुचरित्र' का भी उल्लेख मिलता है ।
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समरादित्यसंक्षेप – यह हरिभद्रसूरिकृत प्राकृत 'समराइच्चकहा' का संस्कृत भाषा में छन्दोबद्ध सार है । इस सार की भाषा अति संक्षिप्त होते हुए भी आलंकारिक काव्य के गुणों से पूर्ण है । यह कृति उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, श्लेष आदि अर्थालंकार और अनुप्रास, यमक आदि शब्दालंकारों से भरपूर है । इसमें सार्वजनीन भावसूचक वाक्यांश या पद्य प्रचुर मात्रा में मिलते हैं जिनका विधिवत् संग्रह सुभाषित साहित्य के लिए एक बड़ी देन होगी । कुछ उदाहरण यहाँ प्रस्तुत हैं :
१. स्वप्रतिज्ञां न मुञ्चन्ति महाराज तपस्विनः । १.१६५ २. नैवोचितं पुंसां मित्रदोष प्रकाशनम् । २. १९९ ३. अब्जेषु श्रीनिवासेषु कृमयो न भवन्ति किम् । ४. १६३ ४. भवन्त्यपरमार्थज्ञाः जना विषयलोलुपाः । ६. ३२९ ५. महतामुपकारो हि सद्यः फलति निर्मितः । ८. २६७
भाषा की दृष्टि से यह नूतन सामग्री से समृद्ध है । इसमें कुछ ऐसे शब्दों का प्रयोग हुआ है जो केवल वेद और महाभारत में ही मिलते हैं; कुछ ऐसे अप्रसिद्ध शब्द हैं जो व्याकरणों में ही उपलब्ध हैं; कुछ ऐसे अप्रयुक्त शब्द हैं जो कोषों में मिलते हैं पर साहित्य में प्रायः कम ही प्रयुक्त हुए हैं और कुछ ऐसे नये शब्द हैं। जो प्रकाशित कोषों में नहीं दिखाई पड़ते ।
रचयिता एवं रचनाकाल - इस कृति के कर्ता प्रद्युम्नसूरि' हैं जिन्होंने इसकी रचना वि० सं० १३२४ ( १२६८ ई० ) में की थी। ग्रंथ के अन्त में दी गयी
१. जिनरत्नकोश, पृ० ४१९; हीरालाल हंसराज, जामनगर, सन् १९१५. २. वही, पृ० ४१६; ३२०० ग्रन्थाग्र- प्रमाण .
३. नवं कर्तुमशक्तेन मया मन्दधियाधिकम् ।
प्राकृतं गद्यपद्यं तत् संस्कृतं पद्यमुच्यते ॥ १.३०
४. इस विषय पर विशेष विवेचन के लिए देखें : डा० इ० डी० कुलकर्णी का लेख : लॅग्वेज भाफ समरादिस्य संक्षेप आफ प्रद्युम्नसूरि, आल इण्डिया भोरि० वर्ष २०, भाग २, पृ० २४१. प्रद्युम्नस्य कवेः लक्ष्मीजानिः किमभिधः हिता ।
० का०,
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कुमारसिंह इत्युक्ते
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