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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
शील, कषायदूषण, द्यूत आदि पर २७ कथाओं का संग्रह है । प्रारंभ में धनद की कथा है और अन्त में नल की । ये कथाएँ किसी विषयक्रम के अनुसार नहीं रखी गई हैं । कई विषय आगे-पीछे दो बार आये हैं पर कथाओं की पुनरावृत्ति नहीं हुई है । प्रत्येक कथा के आदि में एक पद्य दिया गया है जो कथा के उद्देश्य को सूचित करता है । यह शैली पंचतंत्र, हितोपदेश के अनुकरण पर है
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रचयिता और रचनाकाल - - इसके कर्ता का नाम कहीं नहीं दियां है। अन्य किसी कथाकोशकार ने भी इसके कर्ता का नाम निर्दिष्ट नहीं किया है । पर इसमें कर्क, अरिकेसरिन और मम्मण का उल्लेख किया गया है और इन राजाओं का समय कर्णाटक राजवंशावली के अनुसार ई० १०वीं - ११वीं शताब्दी है । इन उल्लेखों से डा० सलेतोरे ने कल्पना की है कि इस कथाकोश की रचना ११वीं सदी ईस्वी के अन्तिम चतुर्थ में हुई होगी । '
इस ग्रन्थ की हस्तलिखित प्रतियाँ अम्बाला और जीरा नामक स्थानों पर मिली हैं । इसमें 'चीठी' आदि हिन्दी भाषा के शब्द मिलने से यह अनुमान होता है कि लिपिकारों ने इसमें आवश्यक परिवर्तन किया है। इसकी हस्तलिखित प्रतियां वि० सं० १८५९ से पूर्व की नहीं मिली हैं। इसका अंग्रेजी अनुवाद सी० ० एच० टानी ने किया है और मूल्यांकन करते हुए लिखा है कि ये कहानियाँ भारतीय लोकवार्ताओं के यथार्थ अंश हैं जिन्हें किसी जैनाचार्य ने अपने धर्म के अनुयायियों के गौरवगान का रूप देकर अपने ढंग से फिर से सम्पादन किया है ।
कहारयणकोस ( कथारत्नकोश ) - इस कथाकोश में ५० कथाएं हैं जो दो बृहद् अधिकारों में विभक्त हैं। पहले अधिकार का नाम धर्माधिकारी - सामान्यगुण-वर्णन है। इसमें ९ सम्यक्त्व पटल की तथा २४ सामान्य गुणों की इस तरह ३३ कथायें हैं । द्वितीय धर्माधिकारी विशेषगुण-वर्णनाधिकार में बारह व्रतों तथा वन्दन-प्रतिक्रमण आदि से संबंधित १७ कथायें हैं। इस कथाकोश का उद्देश्य यह है कि अच्छा साधु और अच्छा श्रावक वही है जो अपने-अपने
१. जैन एण्टीक्वेरी, भाग ४, सं० ३, पृ० ७७-८०.
२. ओरियण्टल ट्रान्सलेशन फण्ड, न्यू सिरीज, लन्दन, १८९५.
३. आत्मानन्द जैन ग्रन्थमाला में मुनि पुण्यविजय जी द्वारा सम्पादित, सन् १९४४ में प्रकाशित; डा० जगदीशचन्द्र जैन, प्राकृत साहित्य का इतिहास, पृ० ४४८ ४५५; जिनरत्नकोश, पृ० ६६.
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