SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 254
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कथा-साहित्य २४१ व्रतों में निष्णात है। बिना अच्छा श्रावक बने कोई भी अच्छा श्रमण नहीं चन सकता है। जो अणुव्रतों का पालन कर सकता है वही महाव्रतों का पालन कर सकता है। सुश्रावक होने के लिए व्यक्ति में सामान्य और विशेष दोनों ही गुण होने चाहिये। सुश्रावक के सामान्य गुण ३३ हैं जिनमें सम्यग्दृष्टि और उसके आठ अतिचार. धर्म में श्रद्धा, देवमन्दिर और मुनिसंघ की श्रद्धापूर्वक सहायता करना और करुणा, दया आदि मानवीय वृत्तियों का पापण करना समाविष्ट हैं। विशेष गुण १७ हैं जिनमें पांच अणुव्रत, सात शिक्षाव्रत, संवरण, आवश्यक और दीक्षा समाविष्ट हैं। इन गुणों के महत्व को प्रकाशित करनेवाली कथाएँ ही इस कथाकोश में दी गई हैं। यह कथाकोश अधिकांश में प्राकृत पद्यों में ही लिखित है, कहीं-कहीं कुछ अंश गद्य में भी दिये गये हैं। बीच-बीच में संस्कृत और अपभ्रंश के पद्य भी दिये गये हैं। कथाओं द्वारा धार्मिक और औपदेशिक शिक्षा देना ही इस कथाकोश का प्रधान लक्ष्य है । ग्रन्थ का परिमाण १२३०० श्लोक-प्रमाण है। __ इस कथाकोश की सभी कथाएँ रोचक हैं । उपवन, ऋतु, रात्रि, युद्ध, श्मशान, राजप्रासाद, नगर आदि के सरस वणनों के द्वारा कथाकार ने कथा-प्रवाह को गतिशील बनाया है। इन कथाओं में सांस्कृतिक महत्त्व की बहुत सामग्री है। नागदत्तकथानक में कुलदेवता की आराधना के लिए उठाये गये कष्टों से उस काल के रीति-रिवाजों तथा नायक के चरित्र और वृत्तियों पर प्रकाश पड़ता है। सुदत्तकथा में गृहकलह का प्रतिपादन करते हुए सास, बहू, ननद और बच्चों के स्वाभाविक चित्रणों में कथाकार ने पूरी कुशलता प्रदर्शित की है। सुजसभेष्ठी और उसके पुत्रों की कथा में बाल-मनोविज्ञान के अनेक तत्त्व चित्रित हैं। धनपाल और बालचन्द्र की कथा में वृद्धा वेश्या का चरित्र-चित्रण सुन्दर हुआ है। __ रचयिता और रचनाकाल-इसके रचयिता देवभद्रसरि (गुणचन्द्रगणि) हैं। इनका परिचय इनकी अन्य कृतियों-महावीरचरिय तथा पासनाहचरिय के प्रसंग में दिया गया है। इसकी रचना उन्होंने वि० सं० ११५८ में भरकन्छ (भड़ौच) नगर के मुनिसुव्रत चैत्यालय में समाप्त की थी। इस ग्रन्थ में प्रणेता ने अपनी अन्य कृतियों में पासनाहचरिय और संवेगरंगशाला' (कथाग्रन्थ) का उल्लेख किया है। १. वसुबाण रुहसंखे ११५८ वच्चंते विक्कमामो कालम्मि। लिहिमो पढमम्मि य पोत्थयम्मि गणिभमलचन्देण ॥ प्रशस्ति, ९. २. इसका परिचय जैन साहित्य का वृहद् इतिहास, भाग ४ में दिया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002099
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Literature, Kavya, & Story
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy