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________________ १२ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास दिगम्बर और श्वेताम्बर के आन्तरिक संगठनों में नवीन परिवर्तन हुए जिससे जैन साहित्य के क्षेत्र में एक नूतन जागरण हुआ। दिग० सम्प्रदाय में तब तक अनेक संघ, गण और गच्छ बन चुके थे और उनके अनेक मान्य आचार्य मठाधीश जैसे बन गये थे और धीरे-धीरे एक नवीन संगठन भट्टारक व महन्त वग के रूप में उदय हो रहा था जो पक्का चैत्यवासी बनने लगा था। इसी तरह श्वेताम्बर सम्प्रदाय चैत्यवास और वसतिवास के विवादस्वरूप अनेकों गणों और गच्छों में विभक्त होने लगा था और विभिन्न गच्छ-परम्पराएँ चलने लगी थी। गण-गच्छनायकों ने अपने-अपने दल की प्रतिष्ठा के लिए एवं अनुयायियों की संख्या बढ़ाने के लिए विभिन्न प्रदेशों और नगरों में विशेष रूप से परिभ्रमण किया। इन लोगों ने अपने विद्याबल एवं प्रभावदर्शक शक्तिसामर्थ्य से राजकीय वर्ग और धनिक वर्ग को अपनी ओर आकर्षित किया और बढ़ते हुए शिष्यवर्ग को कार्यक्षम और ज्ञानसमृद्ध बनाने के लिए नाना प्रकार की व्यवस्था की। इसके फलस्वरूप दक्षिण और पश्चिम भारत के अनेक स्थानों म ज्ञानसत्र और शास्त्रभण्डार स्थापित हुए। वहाँ आगम, न्याय, साहित्य और व्याकरण आदि विषयों के ज्ञाता विद्वानों की व्यवस्था की गई, स्वाध्यायमण्डल खोले गये और अध्यापक और अध्ययनार्थियों के लिए आवश्यक और उपयोगी सामग्री उपलब्ध करायी गई । 'विद्वान् सर्वत्र पूज्यते' इस युक्ति को महत्त्व देकर जैन साधु और गृहस्थ वग अपनी विद्या-विषयक समृद्धि बढ़ाने की ओर विशेष ध्यान देने लगे। जैन सिद्धान्त के अध्ययन के बाद अन्य दार्शनिक साहित्य का तथा व्याकरण, काव्य, अलंकार, छन्दशास्त्र और ज्योतिःशास्त्र आदि सार्वजनिक साहित्य का भी विशेष रूप से आकलन होने लगा और इस विषय के नये-नये ग्रन्थ रचे जाने लगे। (इ) सामाजिक परिस्थितियाँ-हमारे इस आलोच्य युग के पूर्वमध्यकाल में सामाजिक स्तब्धता धीरे-धीरे बढ़ने लगी थी। भारतीय समाज जातिप्रथा से जकड़ता जा रहा था और धार्मिक तथा रीति-रिवाज के बंधन दृढ़ होते जा रहे थे। उत्तरमध्यकाल (११-१२ वीं शताब्दी) आते-आते समाज अनेकों जातियों और उप-जातियों में विभाजित होने लगा था। धीरे-धीरे प्रगतिशील और समन्वय एवं सहिष्णुता के स्थान पर स्थिर रूढ़िवाद और कठोरता ने पैर जमा लिये थे। समाज में तन्त्र-मन्त्र, टोना टोटका, शकुन-मुहूर्त आदि अंधविश्वास अशिक्षित और शिक्षित दोनों में घर कर गये थे। धार्मिक क्षेत्र तथा सामाजिक क्षेत्र में उत्तरोत्तर भेदभाव बढ़ता जा रहा था। क्रिया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002099
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Literature, Kavya, & Story
File Size11 MB
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