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________________ प्रास्ताविक जैनाचार्यों ने ऐसे लौकिक धर्मों को भी अपने धर्म में शामिल कर लिया जो धर्म-सम्मत न होते हुए भी लोक में अपना विशेष प्रभाव रखते थे। नाना प्रकार के पर्व, तीर्थ, मंत्र आदि का माहात्म्य माना जाने लगा और उसके निमित्त नाना प्रकार का कथा-साहित्य लिखा जाने लगा था। इस युग में ससंघ तीर्थयात्रा को महत्त्व भी दिया जाने लगा। __ जैन श्रमणसंघ की व्यवस्था में भी अनेकों परिवर्तन होने लगे थे। महावीरनिर्वाण के लगभग ६ सौ वर्ष बाद जैन मुनिगण वन-उद्यान और पर्वतोपत्यका का निवास छोड़ ग्रामों-नगरों में ठहरना उचित समझने लगे थे। इसे 'वसतिवास' कहते हैं। गृहस्थवर्ग जो पहले 'उपासक' नाम से संबोधित होता था वह धीरे-धीरे नियत रूप से धर्मश्रवण करने लगा और अब वह उपासक-उपासिका की जगह श्रावक-श्राविका कहलाने लगा। वसतिवास के कारण मुनियों और गृहस्थ श्रावकों के बीच निकट सम्पर्क होने से जैन संघ में अनेक मतभेद और आचार-विषयक शिथिलताएँ आने लगी। ईसा की प्रारंभिक शताब्दियों में मूर्ति तथा मन्दिरों का निर्माण श्रावक का प्रधान धर्म बन गया। मुनियों का ध्यान भी ज्ञानाराधना से हटकर मन्दिरों और मूर्तियों की देखभाल में लगने लगा था । वे पूजा और मरम्मत के लिए दानादि ग्रहण करने लगे थे। फलतः सातवीं शताब्दी के बाद से जिनप्रतिमा, जिनालयनिर्माण और जिनपूजा के माहात्म्य पर विशेष रूप से साहित्य निर्माण होने लगा। ईसा की प्रारंभिक शताब्दियों में मुनियों के समुदाय कुल, गण और शाखाओं में विभक्त थे जिनमें मुनियों का ही प्राबल्य था पर धोरे-धीरे गृहस्थ श्रावकों के प्रभाव के कारण नये नाम वाले संघ, गण, गच्छ एवं अन्वयों का उदय होने लगा तथा कई गच्छ-परम्पराएँ चल पड़ी थी। पहले जैन आगमसूत्रों का पठन-पाठन जैन साधुओं के लिए ही नियत था पर देशकाल के परिवर्तन के साथ श्रावकों के पठन-पाठन के लिए उनकी रुचि का ध्यान रख आगमिक प्रकरण और औपदेशिक प्रकरणों के साथ नूतन काव्यशैली में पौराणिक महाकाव्य, बहुविध कथा-साहित्य और स्तोत्रों तथा पूजा-पाठों की रचना होने लगी। पाँचवीं से दसवीं शताब्दी तक जैन मनीषियों द्वारा ऐसी अनेक विशाल एवं प्रतिनिधि रचनाएँ लिखी गई जो आगे की कृतियों का आधार मानी जा सकती हैं। ईसा की ११वीं और १२वीं शताब्दी में देश की राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों में परिवर्तन के साथ जैनसंघ के उभय सम्प्रदायों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002099
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Literature, Kavya, & Story
File Size11 MB
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