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________________ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास गृहस्थों की प्रतिष्ठा कायम थी। दिल्ली का बादशाह मुहम्मद तुगलक जिनप्रभसूरि का बड़ा समादर करता था । मुगल सम्राट अकबर और जहांगीर ने आचार्य होरविजय, शान्तिचन्द्र और भानुचन्द्र के उपदेशों से प्रभावित हो जीवरक्षा के लिए फरमान निकाले थे। अकबर ने आचार्य होरविजय जी को जगद्गुरु की उपाधि दी थी और उनके अनुरोध पर पज्जूसण के जैन वार्षिकोत्सव के समय उन स्थानों में प्राणिहिंसा की मनाही कर दी थी जहाँ कि जैन लोग रहते थे। इस राजनीतिक स्थिति का प्रभाव जैन काव्य साहित्य पर विविध रूप से पड़ा और पाँचवीं शती ईस्वा से अनवरत जैन काव्य-साहित्य का निर्माण होता रहा। (आ) धार्मिक परिस्थितियों-गुप्तकाल से अब तक भारत में धार्मिक परिस्थिति ने अनेक करवटें बदली हैं। गुप्तयुग में एक नवीन ब्राह्मणधर्म का उदय हो रहा था जिसका आधार वेदों की अपेक्षा पुराण अधिक माने जाते थे। ब्राह्मणधर्म में नाना अवतारों की पूजा और भक्ति की प्रधानता थी। गुप्त नरेश स्वयं भागवत धर्मानुयायी अर्थात् विष्णुपूजक थे परन्तु वे बड़े ही धर्मसहिष्णु और अन्य धर्मों को संरक्षण देनेवाले थे। बौद्धधर्म के महायान सम्प्रदाय का गुप्त राज्यों के संरक्षण में अच्छा प्रचार था। नालन्दा और पश्चिम में वलभी बौद्धधर्म के नये केन्द्रों के रूप में विकसित हो रहे थे। जैनधर्म भी विकसित स्थिति में था। वलभी में देवर्धिगणि क्षमाश्रमण ने जैनागमों का पाँचवीं शताब्दी में संकलन किया था। इस युग की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि विभिन्न धर्मों में परस्पर आदान-प्रदान और संमिश्रण अधिक मात्रा में बढ़ने लगा था। जैन तीर्थंकर ऋषभदेव और भगवान् बुद्ध हिन्दू अवतारों में गिने जाने लगे थे। उस समय के अनेक धार्मिक विश्वासों में उलट-पलट हो रही थी, धार्मिक जीवन में विधर्मी तत्त्वों का प्रवेश होने लगा था और एक ही कुटुम्ब और राज्यवंश में विभिन्न धर्मों की एक साथ उपासना होने लगी थी। तांत्रिक धर्म का विस्तार बढ़ने लगा था। हिन्दूधर्म के भागवत, शाक्त और शैव सम्प्रदायों में तथा बौद्धधर्म में तांत्रिक धर्म प्रविष्ट हो चुका था। जैनधर्म में वह मंत्रवाद के रूप में प्रविष्ट हो रहा था। तांत्रिक देवी-देवताओं के रूप में चमत्कार-प्रदर्शन के लिए या वाद-विवाद में पराजय के लिए कुछ देवियोंजैसे ज्वालामालिनी, चक्रेश्वरी, पद्मावती आदि का आविष्कार होने लगा था । उनकी स्वतंत्र मूर्तियाँ व मन्दिरों का निर्माण भी होने लगा था तथा उनके लिए स्रोत्र-पूजाएँ भी रची जाने लगी थीं। शैव और वैष्णव धर्मों के प्रभाव के कारण तीर्थंकरों को कर्ता-हर्ता मानकर उनके भक्तिपरक स्तोत्र बनने लगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002099
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Literature, Kavya, & Story
File Size11 MB
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