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प्रास्ताविक
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काण्ड और शुद्धि-अशुद्धि के कारण ब्राह्मण वर्ग में छूताछूत का विचार बढ़ रहा था । जातियों के उपजातियों में विभक्त होने से उनमें खान-पान, रोटीबेटी का सम्बन्ध बन्द हो रहा था । क्षत्रिय और वैश्य वर्ग में भी इन नये परिवर्तनों का प्रभाव पड़ने लगा था । क्षत्रिय वर्ग के राजवंशों से शासन कार्य प्रायः छिन रहा था । इस काल के अनेक राजवंश प्रायः अक्षत्रिय वर्ग के थे। उत्तर भारत में थानेश्वर के पूष्पभूति वैश्य थे। मौखरी और पश्चात् कालीन गुप्तराजा अक्षत्रिय ही थे । बंगाल के पाल और सेन शूद्र थे । कन्नौज के गुर्जर-प्रतिहार विदेशी थे जो पीछे क्षत्रिय बनाये गये थे । इसी तरह परमार और चौहान भी थे । तात्पर्य यह कि क्षत्रियवर्ग में अनेक तत्त्वों का संमिश्रण हो रहा था । सामान्य क्षत्रिय व्यापार कर वैश्यवृत्ति धारण कर रहे थे और धार्मिक दृष्टि से वे किसी एक धर्म के माननेवाले न थे तथा पश्चिम और दक्षिण भारत में बहुसंख्यक जैनधर्मावलम्बी भी हो गये थे ।
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इस काल में वैश्यवर्ग में भी नूतन रक्त संचार हुआ । ६ठी शताब्दी के लगभग वे जैन और बौद्ध धर्म के प्रभाव के कारण कृषि कर्म छोड़ चुके थे क्योंकि उत्तर भारत में उस समय कृषकों की अपेक्षा व्यापारिक वर्ग सम्माननीय समझा जाता था । इस काल में अनेक क्षत्रिय वैश्यवृत्ति स्वीकार करने लगे थे । कई जैन स्रोतों से मालूम होता है कि कुछ क्षत्रिय अहिंसा के प्रभाव से शस्त्रजीविका बदलकर व्यापार और लेन-देन वृत्ति करने लगे थे । हमारे युग में वैश्य लोग अनेक जातियों और उप-जातियों में बँट गये थे । इस काल का जैनधर्म अधिकांशतः व्यापारिक वर्ग के हाथ में था । दक्षिण भारत में जैनधर्मानुयायियों में अब भी ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य हैं पर प्रायः सभी व्यापार वृत्ति करते हैं। दक्षिण और पश्चिम भारत में धनिक व्यापारिक वर्ग संरक्षण में जैनधर्म बड़ा ही फला-फूला। अनेक जैन वैश्यों को राज्य कार्यों में सक्रिय सहयोग देने का अवसर मिला था और वे राज्य के छोटे-बड़े अधिकार पदों पर सुशोभित हुए थे 1 अनेक जैन विभिन्न राज्यों के महामात्य और महादण्डनायक जैसे पदों पर भी प्रतिष्ठित हुए थे। दक्षिण और पश्चिम भारत के अनेक शिलालेख उनकी अमर गाथाओं को गाते हुए पाये गये हैं । मुस्लिम काल में भी जैन गृहस्थों के कारण जैनाचार्यों की प्रतिष्ठा कायम थी । दिल्ली, आगरा और अहमदाबाद के कई जैन परिवारों का, उनके व्यापारिक सम्बन्धों एवं विशाल धनराशि के कारण, मुगल दरबारों में बड़ा प्रभाव था । राजपूत राज्यों में भी अनेक जैन सेनापति और मंत्रियों के महत्त्वपूर्ण पदों पर थे। मुगलों से दृढ़तापूर्वक लड़नेवाले राणा प्रताप के समय के भामाशाह, आशाशाह और भरमल
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