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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
पुण्य-कार्यों का आखों देखा विवरण अपने शिष्य को सुनाया हो जिससे प्रभावित हो कवि ने इस काव्य की रचना तत्काल अर्थात् सुनने के अनन्तर मूल घटना के ३०-४० वर्ष बाद सं० १३५० के लगभग की हो। श्री मोहनलाल दलीचन्द्र देसाई ने इस काव्य का रचनाकाल विक्रम की चौदहवीं शताब्दी माना है।
अगडूशाह पर एक अन्य कृति जगडूशाहप्रबंध' का भी उल्लेख मिलता है । सुकृतसागर:
यह ८ सर्गों का लघु संस्कृत काव्य है जिसमें कुल मिलाकर १३७२ श्लोक हैं। इसमें माण्डोंगढ ( मालवा ) के चौदहवीं सदी के पूर्वार्ध में हए प्रसिद्ध जैन वणिक पेथड (पृथ्वीधर ) और उसके पुत्र झांझण के सुकृत कार्यों का विस्तृत परिचय दिया गया है।
इन दोनों पिता-पुत्र का परिचय उपदेशतरंगिणी में तथा पृथ्वीधरप्रबंध में भी संक्षेप में दिया गया है। यह काव्य अपने युग की धार्मिक प्रभावना बतलाने के लिए बड़ा ही उपयोगी है। यह तत्कालीन जैन तीर्थों के महत्त्व का भी दिग्दर्शक है।' पृथ्वीधरप्रबंध:
इसे झंझणप्रबंध या पेथडप्रबंध' भी कहते हैं। इसमें उक्त पृथ्वीधर और उसके पुत्र झांझण के धार्मिक कार्यों का संक्षेप में वर्णन किया गया है। यह एतद्विषयक काव्य सुकृतसागर का ही संक्षिप्त रूप है। प्रस्तुत प्रबंध गद्य-पद्यमय है। उपयुक्त सुकृतसागर और प्रस्तुत कृति की रचना तपागच्छीय नन्दिरत्नगणि के शिष्य रत्नमण्डनगणि ने की है । रत्नमण्डनगणि की अन्य कृतियाँ उपदेशतरंगिणी तथा भोजप्रबंध (सं० १५१७) उपलब्ध हैं।
१. जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास, पृ० ४३४. २. जिनरत्नकोश, पृ० १२८. ३. जिनरलकोश, पृ० ४४३, जैन मात्मानन्द सभा, ग्रन्थांक ४०, भावनगर,
सं० १९७१; इसके विशेष परिचय के लिए देखें-मो० ८० देसाई, जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास, पृ० ४०४-४०६ तथा चिमनलाल भाईलाल
शेठ, जैनिज्म इन गुजरात, पृ० १५८-१६२. 1. नाथूराम प्रेमी, जैन साहित्य और इतिहास, पृ. ४७०-७१. ५. जिनरस्नकोश, पृ० २५६; यहाँ पेघड का पेघड नाम भशुद्ध छापा गया है।
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