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पौराणिक महाकाव्य अकबर ने हीरविजय को जगद्गुरु की उपाधि दी थी। इसकी रचना विमलसागरगणि के शिष्य पद्मसागरगणि ने मांगरोल ( सौराष्ट्र ) में रहकर सं० १६४६ में की थी । पद्मसागर की अन्य कृतियों में तिलकमंजरीवृत्ति, यशोधरचरित्र, उत्तराध्ययनकथासंग्रह, प्रमाणप्रकाश सटीक, धर्मपरीक्षा आदि मिलते हैं।
कृपारसकोश-यह भी हीरविजयसूरि के जीवन से सम्बद्ध रचना है। इसमें हीरविजय के उपदेश से बादशाह ने जो दयामय कार्य किये थे उनका वर्णन है । काव्य में १२८ श्लोक हैं। इसकी रचना तपागच्छीय सकलचन्द्र उपाध्याय के शिष्य शान्तिचन्द्र उपाध्याय ने सं० १६४६-४८ के बीच की थी।
इस पर उनके शिष्य रत्नचन्द्रगणि ने एक वृत्ति लिखी थी। इसका उल्लेख वृत्तिकार ने अध्यात्मकल्पद्रुम और सम्यक्त्वसप्तति में किया है।
हीरसौभाग्यमहाकाव्य-इसमें हीरविजयसूरि का जीवन तथा उनके धार्मिक कार्य, प्रभावना, अकबर बादशाह से सम्पर्क आदि प्रसंग विस्तार से दिये गये हैं। यह काव्य सत्रह सर्गों का वृहत् काव्य है जिसके अधिकांश सर्गों में सौ से अधिक पद्य हैं। चौदहवें सर्ग में यह संख्या ३०० तक पहुँच जाती है। यह काव्य श्रीहर्ष के नैषधमहाकाव्य को आदर्श बनाकर लिखा गया है पर उस जैसा दुरूह और दुर्बोध नहीं है। इसके महाकाव्यत्व और ऐतिहासिकता पर पीछे उक्त प्रसंगों पर प्रकाश डालेंगे।
रचयिता और रचनाकाल-इसकी रचना तपागच्छीय सिंहविमलगणि के शिष्य देवविमल ने सुखबोधा नामक स्खोपशवृत्ति के साथ की है। इसकी रचना का आरंभ तो हीरविजयसूरि के समय में ही हो गया था ऐसा धर्मसागरगणि की पट्टावलि से मालूम होता है पर इसकी समाप्ति विजयदेवसूरि के शासनकाल में ही हो सकी इसलिए यह सं० १६७२ से सं० १६८५ के बीच में ही बन सका है। देवविमल के गुरु बड़े प्रभावक थे। उन्होंने स्थानसिंह नामक अजैन व्यक्ति को जैन धर्म में दीक्षित किया था जो पोछे आगरा के प्रमुख जैनों में एक था। देवविमलकृत हीरसौभाग्य के आधार से ऋषभदास कवि ने सं० १६८५ में गुजराती में हीरविजयसूरिरास की रचना की थी। हीरसौभाग्य
१. जिनरत्नकोश, पृ० ९५, कान्तिविजय इतिहासमाला, भावनगर, सं० १९७३. २. वही, पृ० ९५. ३. वही, पृ० ४६१; काव्यमाला, निर्णय सागर प्रेस, बम्बई, १९००.
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