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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
काव्य का संशोधन उपाध्याय कल्याणविजय के शिष्य धनविजय वाचक ने किया था ।
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विजयप्रशस्तिकाव्य - इस काव्य के १६ सर्गों की रचना करने के बाद कवि का स्वर्गवास हो गया इससे गुणविजय ने अन्तिम पाँच सर्ग जोड़कर इसे २१ सर्गात्मक कृति बनाया है । इसमें कुल मिलाकर १७०९ पद्य हैं। ये विविध छन्दों में निर्मित हैं । इसमें तपागच्छ के हीरविजय, विजयसेन और विजयदेवसूरि के चरित का काव्यात्मक शैली में वर्णन है । इसके महाकाव्यत्व और ऐतिहासिक महत्व की चर्चा पीछे की जायगी ।
काव्यकर्ता और रचनाकाल - इसकी रचना कमलविजयगणि के शिष्य हेमविजयगणि ने सं० १६८१ में की है। ये सत्रहवीं शती के महान् लेखक थे । इनकी अन्य रचनाओं में पार्श्वनाथमहाकाव्य, कथारत्नाकर, अन्योक्तिमुक्तामहोदधि, कीर्तिकल्लोलिनी, सूक्तिरत्नावली, विजयस्तुति आदि मिलते हैं । सभी ग्रन्थों के पीछे कवि ने अपना तथा ग्रन्थ का परिचय दिया है । विजयप्रशक्ति के पीछे तो सभी ग्रन्थों का उल्लेख पद्यों में किया गया है ।
इस काव्य पर कनकविजय के शिष्य और अन्तिम पाँच सर्गों के कर्ता गुणविजय ने एक संस्कृत टीका लिखी है जिसका परिमाण १०००० श्लोक है । वह टीका वि० सं० १६८८ में लिखी गई थी ।
विजयदेवमाहात्म्य — इसमें १९ सर्ग हैं जिनमें विविध छन्दों में निर्मित १७९५ पद्य हैं। इसमें हीरविजयसूरि के प्रशिष्य और विजयसेनसूरि के शिष्य विजयदेव का जीवनवृत्त काव्यात्मक शैली में दिया गया है। इसके ऐतिहासिक महत्त्व की चर्चा उक्त प्रसंग में की जायगी । रचयिता एवं रचनाकाल - - इस काव्य के प्रणेता बृहत्खरतरगच्छीय जिनराजसूरि-सन्तानीय पाठक ज्ञानविमल के शिष्य श्रीवल्लभ उपाध्याय हैं । इसका रचनासमय अज्ञात है किन्तु इसकी प्राचीन हस्तलिखित प्रति सं० १७०९ की मिलती है। इससे ज्ञात होता है कि मूल ग्रन्थ पहले बना होगा |
१. यशोविजय जैन ग्रन्थमाला, सं० २३, भावनगर, वीर सं० २४३७, टीका सहित; जिनरत्नकोश, पृ० ३५४-३५५.
२. जिनरत्नकोश, पृ० ३५४; जैन साहित्य संशोधक समिति, अहमदा
पण्डितश्री श्रीरङ्गसोमगणिशिष्य मुनिसो मगणिना
बाद, १९२८.
३. लिखितोऽयं ग्रन्थः
सं० १७०९
वर्षे... 1
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