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जैन साहित्य का वृहद् इतिहास
गुरुगुणरत्नाकरकाव्य-इसमें तपागच्छ के पट्टधर लक्ष्मीसागरसूरि (सं० १५१७-१५४७ गच्छनायक) का जीवनवृत्त चार सर्गों में वर्णित है।' यह संस्कृत में है। इसका ऐतिहासिक विवेचन अन्यत्र दिया जायगा ।
__ कर्ता एवं रचना-समय-इसकी रचना लक्ष्मीसागर के पट्टकाल में ही सं० १५४१ में सोमचरित्रगणि ने की है। प्रशस्ति में ग्रन्थकर्ता ने परिचय देते हुए अपनी गुरुपरम्परा में लिखा है कि वे तपागच्छ के सोमसुन्दरसूरि के शिष्य सोमदेवसूरि और उनके शिष्य चरित्रहंसगणि के शिष्य थे।
सुमतिसम्भव-इसमें तपागच्छीय विद्वान् कवि सुमतिसाधु का जीवनचरित निबद्ध करने का उपक्रम किया गया है पर काव्य-नायक के विषय में इससे अधिक जानकारी नहीं होती। इससे कहीं अधिक उपयोगी सामग्री माण्डवगढ़ के धनाड्य व्यापारी संघपति जावड़ की सामाजिक प्रतिष्ठा तथा धर्मनिष्ठा के विषय में मिलती है । इसकी चर्चा ऐतिहासिक काव्यों के प्रसंग में की जायगी। ___रचयिता और रचनाकाल-इसकी रचना सर्वविजयगणि ने की है जो शिवहेम के शिष्य और जिनमाणिक्य के छात्र थे। इसका रचनाकाल अज्ञात है पर प्राचीन प्रतिलिपि सं० १५५४ की लिखी मिली है। इसमें सं० १५४७ में जावड़ द्वारा प्रतिमा-प्रतिष्ठा का वर्णन है। पर सुमतिसाधु के स्वर्गारोहण ( सं० १५५१ ) का उल्लेख नहीं है। इससे प्रतीत होता है कि यह काव्य सं० १५४७ के बाद तथा सं० १५५१ के पूर्व रचा गया होगा। सर्वविजयगणि की अन्य रचना 'दश श्रावकचरित' मिलती है।
जगद्गुरुकाव्य-इसका ग्रंथाग्र २३३ श्लोक-प्रमाण है । इसमें संस्कृतछन्दों में तपागच्छ के हीरविजयसूरि की जीवनी वर्णित है । सं० १६४१ में बादशाह
जिनरत्नकोश, पृ० १०६; यशोविजय जैन ग्रन्थमाला, ग्रन्थांक २४, वीर सं० २४३७. इसके चारों सर्गों का सार 'जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास'
पृ० ४९६-५०२ में मो० द. देसाई ने दिया है। २. जिनरत्नकोश, पृ० ४४६, इसकी एक मात्र प्रति एशियाटिक सोसाइटी माफ
बंगाल, कलकत्ता में सुरक्षित है (प्रति-संख्या ७३०५)। इस काव्य के
परिचय के लिए गंगानगर के प्रो. सत्यवत तृषित का आभारी हूँ। ३. इसे हर्षकुलगणि ने ईडर में लिखवाई थी : संवत् १५५४ वर्षे श्रीइलदुर्ग_महानगरे हर्षकुलगणयः सुमतिसम्भवमलीलिखल्लेखकेन । ४. जिनरत्नकोश, पृ० १२८; यशोविजय जैन ग्रन्थमाला, सं० १४, भावनगर.
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