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पौराणिक महाकाव्य
सहायता की याचना की। इस मौके का वरांग ने लाभ उठाया और बकुलनृप को परास्तकर अपने पिता के नगर में प्रवेश किया । उत्तमपुर की जनता ने वरांग का स्वागत किया । इसके बाद अपने विरोधियों को क्षमाकर वह वहाँ का राज्यशासन सम्हालने लगा और पिता की आज्ञा से नये देशों को जीतने निकला । पीछे उसने नये राज्य की स्थापनाकर आनर्तपुर को एक दिन उसने अपनी प्रधान रानी के एक प्रश्न पर तथा वहीं जिनगृह तथा जिनप्रतिमा की स्थापना की ।
अपनी राजधानी बनाई ।
गृहस्थ का मर्म बतलाया
एक दिन आकाश में वराङ्ग ने टूटते हुए तारे को देखा। हो गया और उसने अपने पुत्र सुगात्र को राज्यभार सौंपकर जिनदीक्षा ले ली तथा तपस्या कर मुक्ति पद प्राप्त किया ।
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कहा गया है ।
वराङ्गचरित के प्रत्येक सर्ग की पुष्पिका में उसे धर्मकथा' यद्यपि कवि ने इस रचना को महाकाव्य की उपाधि नहीं दी है फिर भी इसमें पौराणिक महाकाव्य की अनेक विशेषताएँ हैं, यथा - सर्गों में विभाजन तथा महाकाव्योचित नगर, ऋतु, केलि, विरह, विवाह, युद्ध, विजय आदि का वर्णन, विभिन्न छन्दों का उपयोग तथा सर्गान्त में छन्द-परिवर्तन। इसका नायक वराङ्ग धर्मवीर और युद्धवीर है ।
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इससे उसे वैराग्य वरदत्त केवलीसे
जीव और
वराङ्गचरित में जैन सिद्धान्त और नियमों का वर्णन बहुत है। चौथे से लेकर दसवें तक तथा छब्बीसवाँ और सत्ताईसवाँ सर्ग इस निमित्त ही रचे गये हैं। यदि इन सर्गों को ग्रन्थ से निकाल भी दिया जाय तो घटनाओं के वर्णन में कोई अन्तर नहीं आता। इस काव्य के विविध स्थलों में -कर्म-सम्बन्ध, सुख और दुःख का कारण, सम्यक्त्व और मिथ्यात्व, संसार का स्वरूप, गृहस्थधर्म, जिनपूजा और जिनमन्दिर निर्माण का महत्त्व, महाव्रत, गुप्ति, समिति आदि का निरूपण किया गया है । कवि ने अनेक प्रसङ्गों में इतर मतों की आलोचना की है। उन्होंने संसार की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय के कारण स्वरूप पुरुष, ईश्वर, काल, कर्म, दैव, ग्रह आदि का खण्डन किया है। इसी तरह बौद्ध सिद्धान्तों— क्षणिकवाद, शून्यवाद, विज्ञप्तिमात्रतावाद और प्रतीत्यसमुत्पादवाद का खण्डन किया है । कवि ने रुद्र, अग्नि, ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र, कुमार और बुद्ध के देवत्व की भी समीक्षा की है । कवि ने जन्मना वर्ण-व्यवस्था का खण्डन
१. इति धर्मकथोद्देशे चतुर्वर्गसमन्विते । स्फुटशब्दार्थसन्दर्भे वराङ्गचरिताश्रिते ॥
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