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जैन साहित्य का वृहद् इतिहासः किया है और पुरोहित वर्ग की तीव्र आलोचना करते हुए ब्रामणत्व का आधार विद्वत्ता, सत्यता और साधुशीलता बतलाया है।' ___ कवि ने अपने समय (बादामी के चालुक्य वंश के राज्यकाल ) में दक्षिण भारत के जैनधर्म का एक सुन्दर चित्र उपस्थित किया है। उन्होंने जैन मन्दिरों, जैन मूर्तियों और जैन महोत्सवों का सुन्दर वर्णन किया है, साथ में राज्यों की ओर से मन्दिरों को ग्राम वगैरह दिये जाने का भी उल्लेख किया है। इसका समर्थन कदम्ब, चौलुक्य और राष्ट्रकूटवंशीय शिलालेखों से भी होता है। इस काव्य से तत्कालीन अन्य सामाजिक और राजनीतिक परिस्थिति का भी दिग्दर्शन होता है।
विविध वर्णन और धार्मिक चर्चाओं के रहने पर भी काव्य-शास्त्र की दृष्टि के इस काव्य में कुछ विशेषताएँ और त्रुटियाँ भी हैं। वैसे काव्य शान्तरस-प्रधान है फिर भी यत्र-तत्र अन्य रसों के दर्शन होते हैं। यथा वरांग और उसकी नवोढ़ा पत्नियों के केलि-वर्णन में संयोग-शृंगार, त्रयोदश सर्ग में पुलिन्द बस्ती के चित्रण में बीभत्स रस की तथा चतुर्दश सर्ग में युद्ध-वर्णन में वीर रस की अभिव्यक्ति सुन्दररूपेण हुई है। वरांगचरित की शैली अस्तव्यस्त है। इसमें संस्कृत भाषा का प्रवाह उतना सरस नहीं है। इसमें कई प्राकृत शब्दों का संस्कृत में प्रयोग हुआ है यथा गोण, तुम्ब, बकर, अद्धा आदि । कई का लिंग बदला गया है यथा गह, जाल, भूषण, चक्र को पुंलिंग और अक्षत, वृत्तान्त को नपुंसकलिंग। अश्वघोष, वाल्मीकि आदि के समान इसमें कवि ने धातु के अनियमित रूपों का प्रयोग किया है यथा समजुः के लिए ससर्जुः, जुहुबुः के लिए जुहुः, सुसाध्य के लिए सुसाधयित्वा आदि । अलंकारों के प्रयोग में कवि उलझा नहीं है फिर भी उसकी अनेक उपमाएँ प्रशंसा योग्य हैं। यथा
निदाघमासे व्यजनं यथैव कराकरं सर्वजनस्य याति । तथैव गच्छन् प्रियतां कुमारो वृद्धिं च बालेन्दुरिव प्रयातः ।।२८.६०।।
वरांगचरित में विविध छन्दों का प्रयोग हुआ है उनमें उपजाति का सर्वाधिक ( १८७९), इसके बाद अनुष्टुप् (४६९) का । अन्य छन्दों में द्रुत.
१. प्रस्तावना, पृ० ३२-३५, ६८-७०. २. वही, पृ० ३५-३९ और ७०-७१. ३. वही, पृ० ४३-४८ और ७४-७६. ४, वही, पृ०५२.
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