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पौराणिक महाकाव्य नन्दसूरि के शिष्य थे। इसमें चार अध्याय हैं। ग्रन्थान ३७०० श्लोक-प्रमाण है। रचनाकाल सं० १४९४ है।'
सत्तरहवें कामदेव नल पर जैन कवियों ने संस्कृत और प्राकृत में अनेक काव्य, कथाएँ और प्रबंध लिखे हैं। उनमें अनेक तो बड़े-बड़े ग्रन्थों के अन्तर्गत हैं और कुछ स्वतन्त्र रचनाएँ भी हैं, जिनमें प्रमुख और महत्त्वपूर्ण काव्य नलायनम् है।
, नलायन-इस काव्य में १७ वें कामदेव नल और उनकी पतिव्रता पत्नी दमयन्ती का चरित जैन दृष्टि से प्रस्तुत किया गया है। यह 'नव मंगल' शब्दाङ्कित महाकाव्य है। इसकी रचना दश स्कन्धों में की गई है जिनमें कुल मिलाकर १०० सर्ग और ४०५६ पद्य हैं। नलायन के दूसरे नाम 'कुबेरपुराण' और 'शुकपाठ' भी हैं । कवि ने नल के जन्म से लेकर मृत्यु तक पूरा विवरण दिया है, इससे काव्य बहुत विस्तृत हो गया है। इस काव्य की कथा को तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है। प्रथम भाग में नल के जन्म से लेकर दमयन्ती से विवाह और उसे लेकर निषध देश में आने तक, द्वितीय भाग में नल की द्यूतक्रीड़ा से लेकर दमयन्ती की पुनः प्राप्ति तक तथा तृतीय भाग में नल के श्राद्धधर्म स्वीकार करने से लेकर मृत्यु के पश्चात् कुबेर बनने तक कथा आती है। प्रथम स्कन्ध से लेकर तृतीय स्कन्ध तक प्रथम भाग की कथा वर्णित है । चतुर्थ से आठ तक के स्कन्धों में द्वितीय भाग की और नवम-दशम में तृतीय भाग की कथा वर्णित है।
नलायनम् का कथानक जैनचरित ग्रन्थों में उपलब्ध आख्यानों पर आधारित है अतः व्यासकृत 'महाभारत' में उपलब्ध नलोपाख्यान से तुलना करने पर उसमें अनेक स्थलों पर परिवर्तन किया गया दृष्टिगोचर होता है। पर यह कवि ने स्वयं नहीं किया। उसने जैन परम्परागत नल-चरित की मूल कथा को ज्यों का त्यों ग्रहण किया है । फिर भी काव्य के अनेक अंशों में कवि की मौलिकता एवं काव्यकुशलता झलकती है। हंस-भैमी संवाद, देवदूत-नल-भैमी संवाद, नल के विरह में दमयन्ती का विलाप आदि प्रसंगों में पर्याप्त मौलिकता है। देवदूत, नल और दमयन्ती के बीच हुए वार्तालाप एवं संवाद में श्रीहर्षकृत नैषधीयचरित का
१. जिनरत्नकोश, पृ० ३९६. २. यशोविजय जैन ग्रन्थमाला, भावनगर, वि० सं० १९९४, जिनरस्नकोश,
पृ० २०५.
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