________________
जैन साहित्य का बृहद् इतिहास इस चरित्र की भाषा सरल, सुन्दर और मधुर है। सर्वत्र प्रसंगानुकूल और भावानुवर्तिनी है । मुहावरों का प्रयोग कम ही हुआ है। इसकी भाषा आलंकारिक है। अनुप्रास और यमक के प्रयोग से भाषा अतिमधुर और प्रवाहपूर्ण बन गई है। अर्थालंकारों में सादृश्यमूलक उपमा, उत्प्रेक्षा और रूपक का प्रयोग बहुत हुआ है। इनके साथ अतिशयोक्ति, दृष्टान्त, परिसंख्या, व्यतिरेक, भ्रान्तिमान् आदि अलंकारों के सुन्दर प्रयोग यत्र-तत्र मिलते हैं।
समस्त श्रेयांसनाथचरित अनुष्टुप छन्द में निबद्ध है। केवल प्रत्येक सर्ग के अन्तिम दो-दो पद्य अन्य छन्दों में हैं। इस प्रकार इस चरित्र में अनुष्टुप उपजाति, लक्ष्मी, वसन्ततिलका, आर्या, स्वागता तथा शार्दूलविक्रीडित-इन सात छन्दों का प्रयोग हुआ है।
कविपरिचय और रचनाकाल-इस चरित्र के अन्त में कवि ने एक प्रशस्ति दी है। तदनुसार ग्रन्थकार मानतुंगसूरि कोटिकगण की वैरिशाखा के अन्तर्गत चन्द्रगच्छ से सम्बन्धित थे । चन्द्रगच्छ में शीलचन्द्र आचार्य के चन्द्रसूरि, भरतेश्वरसूरि, धनेशसूरि, सर्वदेवसूरि तथा धर्मघोषसूरि-ये पाँच शिष्य थे। इनमें धर्मघोषसूरि गच्छाधिपति हुए । सर्वदेवसूरि की शिष्य-परम्परा में क्रमशः चन्द्रप्रभसूरि, जिनेश्वरसूरि, रत्नप्रभरि हुए। इन रत्नप्रभसूरि के शिष्य प्रस्तुत काव्य के रचयिता मानतुंगरि थे। इस काव्य की रचना वि० सं० १३३२ में हुई थी। इस काव्य का आधार देवभद्राचार्य विरचित प्राकृत श्रेयांसनाथचरित है। यह बात कवि ने सर्ग प्रथम के १३ और १८ वें पद्य में सूचित की है। इस काव्य का संशोधन प्रसिद्ध संशोधक प्रद्युम्नसूरि ने किया था।
श्रेयांसनाथ पर दूसरी रचना भट्टारक सुरेन्द्रकीर्ति (सं० १७२२-३३) कृत का उल्लेख मिलता है।
१. वही, सर्ग .. १७०, २५१, ४२७, ४२८, २.३२६-१३०, ०.६१. २. वही, प्रशस्ति, श्लो० १२. ३. पुण्डरीकचरित, सर्ग १३.१४४-१४५. ४. जिनरत्नकोश, पृ० ४००.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org