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पौराणिक महाकाव्य श्रेयांसनाथचरित: __ ग्यारहवें तीर्थंकर पर संस्कृत में दो कृतियाँ मिलती हैं। उनमें प्रथम है मानतुंगसूरिकृत ।' इस काव्य में १३ सर्ग हैं। यह ५१२४ श्लोक प्रमाण है। सर्गों का नाम वर्ण्य विषय के आधार पर है। प्रत्येक सर्ग में एक ही छन्द का प्रयोग हुआ है और सर्गान्त में छन्द बदल दिये गये हैं। प्रत्येक सग के अन्तिम पद्य में उस सर्ग का कथानक प्रस्तुत करना श्रेयांसनाथचरित की विशेषता है। इसमें श्रेयांसनाथ के केवल दो भवों-नलिनीगुल्म और महाशुक्रदेव का ही वर्णन है। काव्य में रत्नसार, सत्यकिश्रेष्ठी, श्रीदत्त, कमला आदि अनेक अवान्तर कथाएँ हैं जिनमें भवान्तर वर्णनों की प्रमुखता है। स्थान-स्थान पर जैन धर्म के सिद्धान्तों, उपदेशों और स्तोत्रों का वर्णन है। कथानक में अनेक अप्राकृत और अलौकिक तत्वों का समावेश है। फिर भी इस काव्य के कथानक के प्रवाह में गति और प्रबन्धात्मकता है। कतिपय अवान्तर कथाओं के होते हुए भी श्रेयांसनाथचरित के कथानक में शिथिलता नहीं है। ___ इस चरित के प्रमुख पात्रों में भुवनभानु, नलिनीगुल्म और श्रेयांसनाथ हैं । नलिनीगुल्म और भुवनभानु के चरित्र में तो कुछ विकास हुआ है । श्रेयांसनाथ के चरित्र में किसी स्वतंत्र व्यक्तित्व के दशन नहीं होते हैं। उनका जन्म और अन्य महोत्सव अन्य तीर्थकरों की भाँति ही दिखाये गये हैं। विविध उपदेशों में उनका उपदेशक स्वरूप दृष्टिगत होता है। इसमें प्रकृति-चित्रण, कथानक की पृष्ठभूमि और घटनाओं एवं चरित्र के अनुरूप वातावरण निर्माण करने के लिए किया है ।२ पात्रों के रूपवर्णन में कवि ने विशेष रुचि ली है। जैन धर्म के
अति प्रचलित नियमों का वर्णन ही इस काव्य में किया गया है। कवि ने कठिन दार्शनिक सिद्धान्तों के प्रतिपादन की ओर अपनी रुचि नहीं दिखलाई। साहित्यशास्त्र मान्य विविध रसों की योजना में इस चरित्र के प्रणेता को पर्याप्त सफलता मिली है। १. जिनरत्नकोश, पृ० ४००; जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर; विशेष परिचय
डा. श्या० शं० दीक्षित लिखित '१३-१४वीं शताब्दी के जैन संस्कृत महा
काव्य' में दिया गया है। २. वही, सर्ग १.३६-३७, ५. २५-२६, २८, २९, १०.३४-३६, ५५-५६. ३. वही, सर्ग ७. १७६, १७७, १७९, १८३, २५०, २५५. ४. वही, सर्ग १. २१६-२२०, ४६८-७०; २. २३३-२३६, ६. २४०-२५१,
२५३-५४; १०.८७-९०, २३८-२४०.
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