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________________ व्याकरण स्कन्द-प्रोक्त कहा है। इसकी सबसे प्राचीन टीका दुर्गसिंह की मिलती है। 'काशिका' वृत्ति से यह प्राचीन है, चूंकि काशिका में 'दुर्गवृत्ति' का खंडन किया है । इस व्याकरण पर अनेक वैयाकरणों ने टीकाएं लिखी हैं। जैनाचार्यों ने भी बहुत-सी वृत्तियों का निर्माण किया है। दुर्गपदप्रबोध-टीका: ... 'कातन्त्रव्याकरण' पर आचार्य जिनप्रबोधसूरि ने वि० सं० १३२८ में 'दुर्गपदप्रबोध' नामक टीकाग्रंथ की रचना की है। जैसलमेर और पाटन के भंडार में इस ग्रन्थ की प्रतियाँ हैं। 'खरतरगच्छपट्टावली' से ज्ञात होता है कि इस ग्रंथ के कर्ता का जन्म वि० सं० १२८५, दीक्षा सं० १२९६, सूरिपद सं० १३३१ (३३), स्वर्गगमन सं० १३४१ . में हुआ था । वे आचार्य जिनेश्वरसूरि के शिष्य थे। दीक्षा के समय उनका नाम प्रबोधमूर्ति रखा गया था, इसलिये ग्रन्थ के रचना-समय का प्रबोधमूर्ति नाम उल्लिखित है परंतु आचार्य होने के बाद जिनप्रबोधसूरि नाम रखा गया था। पाटन की प्रति के अन्त में इसका स्पष्टीकरण किया गया है। वि० सं० १३३३ के गिरनार के शिलालेख में जिनप्रबोधसूरि नाम है। वि० सं० १३३४ में विवेकसमुद्रगणि-रचित 'पुण्यसारकथा' का आचार्य जिनप्रबोधसूरि ने संशोधन किया था। वि० सं० १३५१ में प्रहलादनपुर में प्रतिष्ठित की हुई इस आचार्य की प्रतिमा स्तंभतीर्थ में है। . दौर्गसिंही-वृत्ति : 'कातन्त्र-व्याकरण' पर रची गई दुर्गसिंह की वृत्ति पर आचार्य प्रद्युम्नसूरि ने ३००० श्लोक-प्रमाण 'दौर्गसिंही वृत्ति' की रचना वि० सं० १३६९ में की है। इसकी प्रति बीकानेर के भंडार में है। कातन्त्रोत्तरव्याकरण : ___ कातन्त्र-व्याकरण की महत्ता बढ़ाने के लिये विजयानन्द नामक विद्वान् ने 'कातन्त्रोत्तरव्याकरण' की रचना की है, जिसका दूसरा नाम है विद्यानन्द । इसकी रचना वि० सं० १२०८ से पूर्व हुई है। १. सामान्यावस्थायां प्रबोधमूर्तिगणिनामधेयैः श्रीजिनेश्वरसूरिपट्टालङ्कारैः श्री जिनप्रबोधसूरिभिर्विरचितो दुर्गपदप्रबोधः संपूर्णः । २. देखिए-संस्कृत व्याकरण-साहित्य का इतिहास, भा० १, पृ० ४०६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002098
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhujbal Shastri, Minakshi Sundaram Pillai
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1993
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Literature, & Grammar
File Size12 MB
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