________________
जैन साहित्य का बृहद् इतिहास विभक्ति विचार :
'विभक्ति-विचार' नामक आंशिक व्याकरणग्रंथ की १६ पत्रों की प्रति जैसलमेर के भंडार में विद्यमान है । प्रति में यह ग्रंथ वि० सं० १२०६ में आचार्य जिनचंद्रसूरि के शिष्य जिनमतसाधु द्वारा लिखा गया, ऐसा उल्लेख है। इसके कर्ता के विषय में पं० हीरालाल हंसराज के सूची-पत्र में आचार्य जिनपतिसूरि का उल्लेख है परन्तु इतिहास से पता लगता है कि आचार्य जिनपतिसूरि का जन्म वि० सं० १२१० में हुआ था इसलिए इसके कर्ता ये ही आचार्य हो यह संभव नहीं है। धातुरत्नाकर
खरतरगच्छीय साधुसुंदरगणि ने वि० सं० १६८० में 'धातुरत्नाकर' नामक २१०० श्लोक-प्रमाण ग्रंथ की रचना की है। इस ग्रंथ में संस्कृत के प्रायः सब धातुओं का संग्रह किया गया है। __ इस ग्रंथ के कर्ता के उक्तिरत्नाकर, शब्दरत्नाकर और जैसलमेर के किले में प्रतिष्ठित पार्श्वनाथ तीर्थकर की स्तुति भी जो वि० सं० १६८३ में रची हुई है, उपलब्ध होते हैं। धातुरत्नाकर-वृत्ति
'धातुरत्नाकर' जो २१०० श्लोक-प्रमाण है, उस पर साधुसुन्दरगाणे ने सं० १६८० में 'क्रियाकल्पलता' नाम की स्वोपज्ञ वृत्ति की रचना की है। रचनाकार ने लिखा है :
तच्छिष्योऽस्ति च साधुसुन्दर इति ख्यातोऽद्वितीयो भुवि तेनैषा विवृतिः कृता मतिमता प्रीतिप्रदा सादरम् ।
स्वोपज्ञोत्तमधातुपाठविलसत्सद्धातुरत्नाकरः • ग्रन्थस्यात्य विशिष्टशाब्दिकमतान्यालोक्य संक्षेपतः॥
इसमें धातुओं के रूपाख्यानों का विशद आलेखन है। इसका ग्रंथ-परिमाण २१-२२ हजार श्लोक-प्रमाण है।
१. इसकी ५४२ पत्रों की हस्तलिखित प्रति कलकत्ता की गुलाबकुमारी
लायब्रेरी में बंडल सं० १८, प्रति सं० १७१ में है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org