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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
गणपाठ :
कई शब्द- समूहों में एक ही प्रकार का व्याकरण संबंधी नियम लागू होता हो तब व्याकरणसूत्र में प्रथम शब्द के उल्लेख के साथ ही आदि शब्द लगा कर गणका निर्देश किया जाता है । इस प्रकार 'सिद्धहेमचन्द्र शब्दानुशासन' की बृहद्वृत्ति में ऐसे शब्दसमूह का उल्लेख किया गया है। इसलिये गणपाठ व्याकरण का अति महत्त्व का अंग है ।
पं० मयाशंकर गिरजाशंकर शास्त्री ने 'सिद्धहेम - बृहत् प्रक्रिया' नाम से ग्रंथ की संकलना की है उसमें गणपाठ पृ० ९५७ से ९९१ में अलग से भी दिये गये हैं ।
गणविवेक :
'सि० श०' की बृहद्वृत्ति में निर्दिष्ट गणों को पं० साधुराज के शिष्य पं० नन्दिरत्न ने वि० १७ वीं शती में पद्यों में निबद्ध किया है । इसका ग्रन्थान ६०७ है । इसकी ८ पत्र की हस्तलिखित प्रति अहमदाबाद के लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर में ( सं० ५९०७ ) है । इसके आदि में ग्रंथ का हेतु वगैरह इस प्रकार दिया है :
अर्हन्तः सिद्धिदाः सिद्धाचार्योपाध्याय - साधवः । गुरुः श्रीसाधुराजश्च बुद्धिं विदधतां मम ॥ १ ॥ श्री हेमचन्द्रसूरीन्द्रः पाणिनिः शाकटायनः । श्रीभोजश्चन्द्रगोमी [च] जयन्त्यन्येऽपि शाब्दिकाः ॥ २ ॥ श्रीसिद्धहेमचन्द्र [क]व्याकरणोदितैर्गणैः ↓ ग्रन्थो गणविवेकाख्यः स्वान्यस्मृत्ये विधीयते ॥ ३ ॥ गणदर्पण :
गुर्जर नरेश महाराजा कुमारपाल ने 'गणदर्पण" नामक व्याकरण संबंधी ग्रंथ की रचना की है । कुमारपाल का राज्यकाल वि० सं० १९९९ से १२३० है इसलिए उसी के दरमियान में इसकी रचना हुई है । यह ग्रंथ दण्डनायक वोसरी और प्रतिहार भोजदेव के लिये निर्माण किया गया था ऐसा उल्लेख इसकी
१. इस ग्रंथ की इस्तलिखित प्रति जोधपुर के श्री केशरिया मंदिरस्थित खरतरगच्छीय ज्ञानभंडार में है । इसमें कुल २१ पत्र हैं, प्रारंभ के २ पत्र नहीं हैं, एवं बीच-बीच में पाठ भी छूट गया है।
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